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________________ नो आगम-भव्य-शरीर-द्रव्यावश्यक २३ द्वारा मृत देह को शय्यासंस्तारकगत देखकर कोई कहे - अहो! दैहिक पुद्गल समुच्चय रूप शरीर द्वारा जिनेन्द्र देव समुपदिष्ट आवश्यक पद को सम्यक् गृहीत किया - उसका अध्ययन किया, उसे प्रज्ञापित किया - औरों को समझाया,उसकी प्ररूपणा की, उसे दर्शित, निर्देशित एवं उपदर्शित किया - विविध रूप में उसकी प्रज्ञापना की। (प्रश्न उपस्थित होता है) क्या ऐसा कोई दृष्टांत है? (उसका समाधान यह है) जैसे एक रिक्त घट है, जिसमें मधु था, एक ऐसा दूसरा रिक्त घट है, जिसमें घृत था। वर्तमान में उनमें मधु एवं घृत न होने पर भी (उन्हें) क्रमशः मधुघट एवं घृतघट कहा जाता है। यही तथ्य ज्ञ शरीर के साथ योजनीय है। अतएव यह ज्ञ-शरीरद्रव्यावश्यक के रूप में जाना जाता है। . विवेचन - इस सूत्र में ऐसे साधक की मृत देह को उपलक्षित कर नो आगम-ज्ञ-शरीरद्रव्यावश्यक का स्वरूप प्रतिपादित किया है, जिसने जीवितावस्था में तीर्थंकरोपदिष्ट भावानुरूप आवश्यक का अध्ययन, अध्यापन, परिज्ञापन, निर्देशन आदि किया था। यद्यपि चेतनाशून्य, निष्प्राण देह में अब वह आवश्यक विद्यमान नहीं है क्योंकि ज्ञान तो आत्मा का विषय है। आत्मशून्य देह में उसके अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। किन्तु व्यवहारनय - व्यवहारिक दृष्टि या भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा से पूर्ववर्तित्व भाव को दृष्टि में रखते हुए ऐसा प्रतिपादित किया जाता है। (१७) नो आगम-भव्य-शरीर-द्रव्यावश्यक से किं तं भवियसरीरदव्यावस्सयं? भवियसरीरदव्वावस्सयं - जे जीवे जोणिजम्मणणिक्खंते, इमेणं चेव आत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणोवदिटेणं भावेणं आवस्सए' त्ति पयं सेयकाले सिक्खिस्सइ ण ताव सिक्खइ। . जहा को दिलुतो? अयं महुकुंभे भविस्सइ, अयं घयकुंभे भविस्सइ। सेत्तं भवियसरीरदव्वावस्सयं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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