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संख्यात के भेद
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गणणासंखा - एक्कोगणणं ण उवेइ, दुप्पभिइ संखा, तंजहा - संखेजए, असंखेजए, अणंतए।
शब्दार्थ - उवेइ - प्राप्त करता है, दुप्पभिइ - द्विप्रभृति - दो आदि से। भावार्थ - गणना संख्या का क्या स्वरूप है?
एक की संख्या गणना में नहीं आती है (केवल एक से गणना प्रारम्भ नहीं हो सकती अतः) दो आदि से प्रारम्भ करना गणना संख्या है। .
विवेचन - पहले प्राकृत के संखा शब्द का जहाँ विवेचन हुआ है, वहाँ उसके संख्या, संख्य और शंख - तीन रूपों का उल्लेख किया गया है। इस सूत्र में गणनात्मक संख्या का विवेचन है। क्योंकि किन्हीं वस्तुओं की इयत्ता, परिमाण या तादाद संख्या से ही ज्ञात होती है। संख्या द्वारा ही जागतिक जीवन में सब प्रकार का आदान-प्रदान चलता है। वैसे सामान्यतः संख्या का प्रारम्भ एक से होता है और लौकिक दृष्टि से वह सामान्यतः दश शंख तक जाता है और आगे संख्यात की अनेक कोटियाँ बनती जाती हैं। इस सूत्र में एक को गणना में स्वीकार न करने का जो उल्लेख किया गया है, उसका एक विशेष आशय है। - वह (एक) संख्या तो है किन्तु गणना में नहीं आती क्योंकि उदाहरणार्थ - कोई एक वस्तु पड़ी हो तो वस्तु पड़ी है, ऐसा कहा जाता है क्योंकि उसके अतिरिक्त और वस्तु नहीं है, इसलिए एक का, कहे बिना ही वस्तु मात्र के साथ अन्तर्भाव हो जाता है। पारस्परिक आदानप्रदान में, व्यवहार में एक वस्तु प्रायः गणना का विषयभूत नहीं होते। इसलिए गणना में उसे असंव्यवहार्य कहा गया है। यह गणनात्मक संख्या संख्येय असंख्येय और अनंत के भेद से तीन प्रकार की है।
संख्यात के भेद से किं तं संखेजए?
संखेजए तिविहे पण्णत्ते । तंजहा - जहण्णए १ उक्कोसए २ अजहण्णमणुक्कोसए ३॥
शब्दार्थ - अजहण्णमणुक्कोसए - अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम)। भावार्थ - संख्यात कितने प्रकार का होता है?
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