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________________ कालिकश्रुत परिमाणसंख्या ४४१ पद संख्या - सुबन्त और तिङ्गन्त शब्द पद कहलाते हैं। पाणिनीय अष्टाध्यायी (संज्ञा प्रकरण) के अनुसार - ‘सुबन्तं तिङ्गन्तं च पदसंज्ञ स्यात्' - अर्थात् सुबन्त और तिङ्गन्त की पद संज्ञा होती है। सुप् का तात्पर्य - सु और जस् आदि विभक्तियाँ तथा तिङ्ग का तात्पर्य तिप् तस् झि आदि विभक्तियों से है। पाद संख्या - छन्द या पद्य के चतुर्थ अंश को पाद या चरण कहते हैं। इनकी संख्या पादसंख्या कहलाती है। गाथा संख्या - संस्कृत में जिस छन्द को आर्या कहा जाता है, प्राकृत में उसे गाहा या गाथा कहा जाता है। उसका लक्षण निम्नांकित है - यस्या पादे प्रथमे द्वादशमात्रास्तधातृतीयेषु। अष्टादश द्वितीये चतुर्थक पञ्चदशार्या। जिसके पहले और तीसरे चरण में बारह मात्राएँ तथा दूसरे पद में अठारह और चतुर्थ पद में पन्द्रह मात्राएँ हों, वह आर्या या गाथा छन्द कहलाता है। श्लोक संख्या - श्लोकों की संख्या से संबंधित श्लोक संख्या है। वेष्टक संख्या - प्राकृत वाङ्मय में प्रयुक्त छन्द विशेष की संख्या। - नियुक्ति संख्या - आगमगत तात्त्विक गूढ विषयों की निक्षेप पद्धति से की गई व्याख्या नियुक्ति कहलाती है। नियुक्तियों के रूप में ग्रंथों की प्राकृत में पद्यमय रचनाएँ हुई हैं। उनकी संख्या ग्यारह (११) हैं। इनके रचनाकार आचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। अनुयोगद्धार संख्या - व्याख्या के साधनभूत सत्पर प्ररूपण, तन्मूलक उपक्रम आदि अनुयोगद्वार कहलाते हैं। तद्विषयक संख्या अनुयोगद्वार संख्या है। उद्देशक संख्या - आगमसूत्रों के अध्ययनों के अंश उद्देशक कहलाते हैं। अध्ययन संख्या - आगमश्रुत के भाग को अध्ययन कहा जाता है। श्रुतस्कन्ध संख्या - आगम के अध्ययनों का समूह श्रुतस्कन्ध कहा जाता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है, श्रुत या आगमपुरुष की कल्पना की गई है। जिस तरह पुरुष के कंधे होते हैं, उसी तरह आगम के स्कन्ध होते हैं। ये दो माने गए हैं। कंधे सबल और सशक्त होते हैं। उसी प्रकार आगम की सारवत्ता के द्योतक हैं। अंग संख्या - अंगों की संख्या अंग संख्या कहलाती है। , Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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