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________________ ४३८ अनुयोगद्वार सूत्र २. सद्-असद्प औपम्य संख्या संतयं असंतएणं उवमिजइ, जहा - संताई णेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवाणं आउयाइं असंतएहिं पलिओवमसागरोवमेहिं उवमिजंति। भावार्थ - जहाँ सद्प - विद्यमान पदार्थ को अविद्यमान पदार्थ द्वारा उपमित किया जाए वहाँ सद्-असद् संख्यान होता है। जैसे - ___नारकों, तिर्यंचयोनिकों, मनुष्यों और देवों की सद्प आयु को अविद्यमान पल्योपम, सागरोपम द्वारा बतलाना इसका उदाहरण है। ____३. असद् - सद् औपम्य संख्या असंतयं संतएणं उवमिजइ, तंजहा - गाहाओ - परिजूरियपेरंतं, चलंतविंटं पडंतणिच्छीरं। पत्तं व वसणपत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं॥१॥ जह तुब्भे तह अम्हे, तुम्हे वि य होहिहा जहा अंम्हे। अप्पाहेइ पडतं, पंडुयपत्तं किसलयाणं॥२॥ णवि अस्थि णवि य होही, उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं। उवमा खलु एस कया, भवियजणविबोहणट्ठाए॥३॥ शब्दार्थ - परिजूरियपेरंतं - सर्वथा जीर्ण, चलंतविंट - जिसके डंठल टूट गए हैं, पडत- गिरते हुए, णिच्छीरं - सार रहित, वसणपत्तं - बसंत ऋतु के पत्ते से, गाहं - गाथा कही, तुन्भे - तुम, अम्हे - मैं, होहिहा - होवोगे, अप्पाहेइ - संभाषित करता है, किसल - किसलय - कोंपल-नवीन पत्ता, उवमा - उपमा, कया - कृता, भवियजणविबोहणट्ठाए - भव्यजनों के लिए विशिष्ट बोध के लिए। भावार्थ - इसमें असद् वस्तु को सद्-विद्यमान वस्तु से उपमित किया जाता है, जैसे - गाथाएँ - सर्वथा जीर्ण, वृन्त से टूटे हुए, नीरस, पत्ते ने बसंत में निकले हुए नवीन पत्र से कहा - जैसे तुम हो, (कभी) मैं भी वैसा था। तुम भी वैसे हो जाओगे (होने वाले हो)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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