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सद्-सद्प औपम्य संख्या
........... शब्दार्थ - ओवम्मसंखा - औपम्यसंख्या, संतयं - सद्वस्तु को, उवमिजइ - उपमित किया जाता है, असंतयं - असद्वस्तु को।
भावार्थ - औपम्य संख्या का क्या स्वरूप है?
औपम्य संख्या चार प्रकार की परिज्ञापित की गई है, यथा - १. सत् (वस्तु) को सत् से उपमित करना। २. सत् (वस्तु) को असत् से उपमित करना। ३. असत् (वस्तु) को सत् से उपमित करना। ४. असत् (वस्तु) को असत् से उपमित करना।
१. सद्-सद्रूप औपम्य संख्या तत्थ संतयं संतएणं उवमिजइ, जहा - संता अरहंता संतएहिं पुरवरेहिं संतएहिं . कवाडेहिं संतएहिं वच्छेहिं उवमिजंति, तंजहा - . गाहा - पुरवरकवाडवच्छा फलिहभुया दुंदहित्थणियघोसा।
सिरिवच्छंकियवच्छा, सव्वे वि जिणा चउव्वीसं॥१॥ शब्दार्थ - पुरवरेहिं - श्रेष्ठ नगरों से, कवाडएहिं - कपाटों से, वच्छएहिं - वक्षस्थल को, उवमिजंति - उपमित करते हैं, पुरवरकवाडवच्छा - उत्तम नगर के कपाटों के समान वक्षस्थल, फ़लिहभुया - अर्गला के समान भुजाएँ, सिरिवच्छंकियवच्छा - श्रीवत्स से अंकित वक्षस्थल। . .
. भावार्थ - जहाँ सत् वस्तु को सत् वस्तु से उपमित किया जाता है, उसका उदाहरण इस प्रकार है - सद्प या अस्तित्व युक्त अरहंतों (तीर्थंकरों) के वक्षस्थल सद्प, उत्तम नगरों के सप कपाटों से उपमित किए जाते हैं। जैसे -
गाथा - सभी चौबीस तीर्थंकर भगवंत उत्तम नगरों के मुख्य द्वार के कपाटों के समान सुदृढ़ वक्षस्थल युक्त, स्फटिक के तुल्य, द्युतिमय, प्रबल भुजा युक्त, दुंदुभि एवं मेघ के समान गंभीर स्वर युक्त वक्षस्थल पर श्रीवत्स के चिह्न से अंकित होते हैं। ...
विवेचन - जहाँ सद्प उपमेय को सद्प उपमान द्वारा वर्णित किया जाए, वहाँ सद्प औपम्य संख्यान घटित होता है।
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