________________
४३२
अनुयोगद्वार सूत्र
+
+
+
+
जिनेन्द्र देव को संबोधित करते हुए इस श्लोक में कहा गया है -
स्वामिन्! जिस प्रकार सभी नदियाँ समुद्र में आकर मिल जाती हैं, उसी प्रकार सभी दृष्टियाँ - सभी नय आप में - आप द्वारा निरूपित सिद्धान्त में मिल जाते हैं। किन्तु जैसे प्रविभक्त - पृथक्-पृथक् बहती हुई नदियों में समुद्र मिला हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी तरह आपका सिद्धांत पृथक्-पृथक् रहती हुई दृष्टियों में नहीं मिलता।
इसका अभिप्राय यह है कि यदि एक-एक नय पर कोई आग्रह करे, उसी को सत्य माने तो वह जैन सिद्धान्त सम्मत नहीं रहता। वह दुर्नय या कुनय हो जाता है। सभी नय सापेक्ष रूप में जब एक ही अनेकांतमूलक दर्शन में समन्वित होते हैं तब वे सत्य के प्ररूपक बन जाते हैं। नयवाद जैन दर्शन के अनेकांतवाद को स्थापित और सिद्ध करने का एक सुंदर विधिक्रम है। जहाँ अनेकांतवाद स्याद्वाद की शब्दावली में किसी एक वस्तु का निरूपण करता है, वहाँ नयवाद उस वस्तु में रहे अनंत धर्मों में से किन्हीं का पृथक्-पृथक् विवेचन करता है। स्याद्वाद और नयवाद में सहज सामंजस्य है। जो जैन दर्शन की सार्वजनीनता और व्यापकता का द्योतक है। सत्य के विश्लेषणात्मक वैज्ञानिक प्रतिपादन या प्ररूपण का यह बड़ा ही सुन्दर, समीचीन मार्ग है।
(१४७)
संख्याप्रमाण विवेचन से किं तं संखप्पमाणे? संखप्पमाणे अट्ठविहे पण्णत्ते। तंजहा - णामसंखा १ ठवणासंखा २ दव्वसंखा३ ओवम्मसंखा ४ परिमाणसंखा ५ जाणणासंखा ६ गणणासंखा ७ भावसंखा ।
शब्दार्थ - संखप्पमाणे - संख्याप्रमाण।
भावार्थ - संख्याप्रमाण - १. नामसंख्या २. स्थापनासंख्या ३. द्रव्यसंख्या ४. औपम्यसंख्या ५. परिमाणसंख्या ६. ज्ञानसंख्या ७. गणनासंख्या और ८. भावसंख्या के रूप में आठ प्रकार का है।
_ विवेचन - इस सूत्र में प्रमाण के साथ संख शब्द का प्रयोग हुआ है। यहाँ यह संख्या के लिए आया है। प्राकृत के संख शब्द के संस्कृत रूप संख्या, संख्य तथा शंख - ये तीनों बनते हैं। अर्द्धमागधी, शौरसेनी तथा महाराष्ट्री प्राकृत में श, ष तथा स इन तीनों के लिए 'स' का ही प्रयोग होता है। केवल मागधी प्राकृत में ही तालव्य (श) आता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org