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________________ प्रदेश दृष्टान्त ४३१ इसीलिए नय को सदंश (सत्+अंश) ग्राही कहा जाता है। वह सत् के एक अंश को ग्रहण कर निरूपित करता है। इसलिए इसे विकलादेश भी कहा जाता है। ____सामान्य और विशेष को समन्वित रूप में ग्रहण करने वाले नैगमनय, केवल सामान्य को ग्रहण करने वाले संग्रहनय, व्यवहारोपयोगी पक्ष के संग्राहक व्यवहारनय, भूत-भविष्य-विवर्जित वर्तमानग्राही ऋजुसूत्रनय, अनेकविध वाच्यार्थ में एकार्थग्राही शब्दनय, व्यौत्पत्तिक भेद जनित विविधार्थग्राही समभिरूढनय तथा व्युत्पत्ति के अर्थ को ग्रहण करने वाले एवंभूतनय - इनके आधार पर जो विवेचन किया गया है, वह भिन्नता के कारण, सूक्ष्मता से पर्यवलोकन न करने से असंगत सा प्रतीत होता है। उसी प्रतीयमान असंगति को विविध प्रश्नों के माध्यम से भिन्नभिन्न नयों को प्रस्तुत करते हुए प्रकट किया गया है। यह असंगति वास्तव में असंगति नहीं है, क्योंकि जब किसी पदार्थ के एक अंश का निरूपण किया जाता है तो सभी अवशिष्ट अंश अग्रहीत रहते हैं। उन सबका अग्रहण वास्तव में कोई दोष नहीं है किन्तु यहाँ यह अवश्य ज्ञातव्य है - किसी एक नय को लेकर किसी एक पदार्थ का समग्र स्वरूप व्याख्यात नहीं होता। इसलिए सातों नयों का समन्वय किसी पदार्थ के वास्तविक स्वरूप का बोधक होता है। इस सूत्र में प्रसंगवश जो अनवस्था शब्द का प्रयोग हुआ है, उसका आशय तर्क शास्त्र के अनुसार उस दोष से है, जिसमें कार्य-कारण शृंखला का कभी अन्त नहीं होता। न्याय ग्रंथों में कहा है - 'अप्रामाणिकानन्तपदार्थ-परिकल्पनयाविश्रान्त्याभावो अनवस्था'। इसलिए कहा गया है - एवप्यनवस्था स्याद्या मूलक्षतिकारिणी - जो मूल विषय को ही मिटा दे, उसे अनवस्था कहते हैं। इससंदर्भ में मुर्गी और अण्डे का दृष्टांत दिया जाता है। पहले मुर्गी उत्पन्न हुई या अण्डा, जबकि दोनों एक दूसरे से उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मुर्गी से अण्डा और अण्डे से मुर्गी - इस कारण को पीछे ले जाते रहें तो उसका कोई अन्त नहीं आयेगा। सूत्र में वर्णित भजना ऐसी ही अनवस्था उत्पन्न करती है। सातों नयों की समन्वयात्मक संगति के विषय में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का निम्नांकित श्लोक अत्यंत प्रसिद्ध है - उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ! दृष्टयः। न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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