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आगम-द्रव्यावश्यक
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जियं, मियं, परिजियं, णामसमं, घोससमं, अहीणक्खरं, अणच्चक्खरं, अव्वाइद्धक्खरं, अक्खलियं, अमिलियं, अवच्चामेलियं, पडिपुण्णं, पडिपुण्णघोसं, कंठोट्ठविप्पमुक्कं, गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ वायणाए, पुच्छणाए, परियट्टणाए, धम्मकहाए, णो अणुप्पेहाए। कम्हा ? 'अणुवओगो' दव्वमिति कट्ट। __ शब्दार्थ - सिक्खियं - सीखा हुआ, ठियं - मस्तक में टिका हुआ, जियं - अनुक्रमपूर्वक पठन, मियं - अक्षर आदि की मर्यादा, संयोजन आदि जानना अथवा श्लोक, पद, वर्ण आदि के संख्या प्रमाण का भलीभाँति अभ्यास करना, परिजियं - आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी पूर्वक सर्वात्मना स्वायत्त करना, णामसमं - स्वकीय नाम की तरह सर्वथा, सर्वदा स्मृति में समुपस्थित रखना, घोससमं - स्वर के हस्व, दीर्घ, प्लुता तथा उदात्त, अनुदात्त, स्वरित के रूप में जो उच्चारण संबंधी भेद वैयाकरणों ने किए हैं, उनके अनुरूप उच्चारण करना, अहीणक्खरं - अहीनाक्षरपाठक्रम में किसी भी अक्षर को हीन-प्लुत या अस्पष्ट न कर देना - अक्षर का स्पष्टतापूर्वक उच्चारण करना, अणच्चक्खरं - अनत्यक्षर - अधिक अक्षर न जोड़ना, अव्वाइद्धक्खरं - अव्याविद्धक्षर - व्यतिक्रम रहित उच्चारण करना - अक्षर, पद आदि का विपरीत-उल्टा पठन न करना, अक्खलियं .- अस्खलित - पाठ में स्खलन न करना, पाठ का यथाप्रवाह उच्चारण करना, अमिलियं - अमिलित - अक्षरों को परस्पर न मिलाते हुए उच्चारण करना, अवच्चामेलियं- अव्यत्या मेडित - आगम विशेष या शास्त्र विशेष के सूत्रों के पाठ को समानार्थक जानकर उच्चार्य पाठ के साथ न मिलाना, पडिपुण्णं - प्रतिपूर्ण - पाठ का पूर्ण रूप से उच्चारण करना, उसके किसी अंग को अनुच्चरित न रखना, पडिपुण्णघोसं - उच्चारणीय पाठ का घोषपूर्वक-जहाँ अपेक्षित हो उच्च स्वर से स्पष्टतया उच्चारण करना, कंठोट्ठविप्पमुक्कंकण्ठौष्ठ-विप्रमुक्त - उच्चारणीय पाठ या पाठांश को गले और होठों में अटका कर अस्पष्ट नहीं बोलना, गुरुवायणोवगयं - गुरु के पास आवश्यक शास्त्र की विधिवत् वाचना लेना, पुच्छणाए- पृच्छना, परियट्टणाए - परिवर्तना, अणुप्पेहाए - अनुप्रेक्षा।
भावार्थ - आगमतः द्रव्यावश्यक कैसा होता है, उसका क्या स्वरूप है? जिस (साधु) ने आवश्यक को शिक्षित, स्थित आदि उच्चारण संबद्ध विधिक्रम के अनुरूप
- उकालोउज्झस्वदीर्घप्लुतः-पाणिनीय अष्टाध्यायी - १,२,२७
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