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अनुयोगद्वार सूत्र
भी है। कुछ ऐसी स्थापनाएँ की जाती हैं जो काल विशेष की अपेक्षा से होती हैं। उस विशिष्ट काल के अनंतर उस परिकल्पित स्थापना का अस्तित्व नहीं रहता । उसके लिए इत्वरिक का प्रयोग हुआ है। यावत्कथिक तो नाम और स्थापना दोनों हैं किन्तु नाम केवल यावत्कथिक हैं। किन्तु स्थापना यावत्कथिक भी है और इत्वरिक भी।
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द्रव्यावश्यक
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से किं तं दव्वावस्सयं ?
दव्वावस्सयं दुविहं पण्णत्तं । तंजहा - आगमओ य १ णोआगमो य २ । द्रव्यावश्यक, दुविहं - द्विविध दो प्रकार
शब्दार्थ - दव्वावस्सयं - द्रव्यावश्यकं का, आगमओ
आगमतः - • आगमपूर्वक ।
भावार्थ - द्रव्य आवश्यक क्या है?
आगम द्रव्यावश्यक एवं नो आगम द्रव्यावश्यक के रूप में वह दो प्रकार का है। विवेचन 'द्रवतीति द्रव्यम्' - जो मूल स्वरूप में अवस्थित रहती हुआ भिन्न भिन्न पर्यायों में परिणत होता है, उसे द्रव्य कहा जाता है। उसमें अतीत, अनागत एवं वर्तमान के रूप में त्रिकालवर्ती पर्यायों या अवस्थाओं का समावेश होता है। जो पहले जिन पर्यायों में था, आज उनमें नहीं है, फिर भी पूर्ववर्ती पर्यायों की अपेक्षा से आज भी उसके लिए वैसा भाषा व्यवहार प्रचलित है। अनागत पर्यायों के लिए भी ऐसा घटित होता है। जो आज जैसा नहीं है किन्तु भविष्यत् में संभावित पर्यायों की दृष्टि से उसे वैसा अभिहित किया जाना प्रचलित है।
इसका तात्पर्य यह है कि भाव रूप में वैसा न होते हुए भी पूर्ववर्ती - पश्चाद्वर्ती स्थितियों के अनुसार वैसा कहा जाना द्रव्य निक्षेप का विषय है।
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आगम - द्रव्यावश्यक
से किं तं आगमओ दव्वावस्सयं ?
आगमओ दव्वावस्सयं जस्स णं 'आवस्सए' त्ति पयं सिक्खियं, ठियं,
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