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आगम प्रमाण
विवेचन - जैन दर्शन में तीर्थंकर महापुरुष 'आप्त' कहलाते हैं। जैसा पहले सूचित किया गया है आप्त पुरुषों का ज्ञान अविसंवादी - सर्वथा विशुद्ध एवं अव्याबाध होता है । पुनश्च, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकरों द्वारा भाषित होने के कारण आगमिक ज्ञान असंदिग्ध है, सर्वथा प्रमाणिक है। अन्य छद्यस्थों का ज्ञान पूर्ण, सार्वदेशिक या सार्वभौमिक नहीं होता । अपितु मनइन्द्रिय सापेक्ष होता है। अतः इस ज्ञान में प्रामाण्य की व्याप्ति नहीं होती अर्थात् उसको पूर्णतः प्रामाणिक मानना संगत नहीं है। यहाँ यह तथ्य भी ज्ञातव्य है - तीर्थंकर की वाणी को आधार मानकर रचित ग्रन्थ, जो वीतराग प्ररूपित तत्त्व के संपोषक हों, आगम की श्रेणी में ही आते हैं।
आगम विशिष्ट ज्ञान के सूचक हैं, जो प्रत्यक्ष या तत्सदृश बोध से जुड़ा है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है - आवरक हेतुओं या कर्मों के अपगम से जिनका ज्ञान सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध हो गया, अविसंवादी हो गया, ऐसे आप्त पुरुषों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का संकलन आगम है* ।
यहाँ आगमों को गणिपिटक कहा गया है। गण के नायक आचार्य 'गणी' कहे जाते हैं। आग़म रूप निधि की पेटिका उनके अधिकार में रहती थी। क्योंकि उपाध्याय तो केवल शाब्दिक वाचना देते थे। आगमों की अर्थवाचना देने के अधिकारी आचार्य रहे हैं । आगम रूप निधि के लिए पिटक शब्द का प्रयोग हुआ है, उससे प्रकट होता है, लिपिबद्ध आगम काष्ठनिर्मित पेटिका में (सुरक्षा की दृष्टि से) रखे जाते थे । तथागत बुद्ध द्वारा भाषित आगमों के तो मूल नाम के साथ ही पिटक शब्द जोड़ दिया गया, जो विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक के रूप में सूचित होता है।
अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते । तंजहा - सुत्तागमे १ अत्थागमे २ तदुभयागमे ३ | अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते । तंजहा - अत्तागमे १ अणंतरागमे २ परंपरागमे ३ । तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे, अत्थस्स परंपरागमे, तेण परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे, णो अणंतरागमे, परंपरागमे । सेत्तं लोगुत्तरिए । सेत्तं आगमे । सेत्तं णाणगुणप्पमाणे ।
* आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः ।
उपचारादाप्तवचनं च ॥ - प्रमाणनय तत्त्वालोक ४. १, २ ।
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