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अनुयोगद्वार सूत्र
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शब्दार्थ - तित्थगराणं - तीर्थंकरों के, अत्थस्स - अर्थ के, सुत्तस्स - सूत्र का, गणहरसीसाणं - गणधरों के शिष्यों के लिए, अत्तागमे - स्वरचित आगम, अणंतरागमे - रचनाकार से सीधे प्राप्त आगम, परंपरागमे - रचनाकार के शिष्यों से प्राप्त आगम, णाणगुणप्पमाणे - ज्ञान गुण प्रमाण। __ भावार्थ - अथवा आगम तीन प्रकार के निरूपित हुए हैं - १. सूत्रागम २. अर्थागम तथा ३. तदुभयागम।
पुनश्च इस भांति आगम (अन्य प्रकार से) तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हुए हैं - १. आत्मागम २. अनंतरागम तथा ३. परंपरागम।
अर्थरूप आगम तीर्थंकरों के लिए आत्मागम हैं, सूत्र रूप आगम गणधरों के लिए आत्मागम हैं और अर्थ रूप आगम अनंतरागम है। गणधरों के शिष्यों के लिए सूत्रज्ञान अनंतरागम है। गणधरों के शिष्यों के लिए सूत्रज्ञान अनंतरागम और अर्थज्ञान परंपरागत है।
तद्व्यतिरिक्त (गणधरों के प्रशिष्यों आदि के लिए) सूत्र एवं अर्थ रूप आगम न आत्मागम हैं, न अंतरागम हैं वरन् परंपरागम हैं।
यह आगम प्रमाण रूप लोकोत्तरिक आगम का स्वरूप है। , यह ज्ञान गुण प्रमाण का विवेचन है।
विवेचन - जैन परम्परा में यह स्वीकृत है कि आगमगत ज्ञान का अर्थरूप में सर्वज्ञ सर्वदर्शी, तीर्थंकर उपदेश करते हैं। इसलिए अर्थरूप में आगम आत्मगत या आत्मागम हैं। तीर्थंकरों द्वारा संप्रतिष्ठापित धर्मसंघ के गणों का संचालन करने वाले गणधर (प्रमुख शिष्य) अर्थ रूप में उपदिष्यमान ज्ञान को सूत्र रूप में संकलित करते हैं, इसलिए वह अर्थज्ञान उनके लिए आत्मागम नहीं हैं, अनंतरागम है। किन्तु सूत्र रूप में संकलित ज्ञान उनके लिए आत्मागम है। क्योंकि वे सूत्रों के संग्रथयिता हैं। गणधरों के शिष्यों के लिए अर्थ रूप आगम परंपरागम तथा सूत्र रूप आगम अनंतरागम है क्योंकि उन्हें गणधरों के पश्चात् प्राप्त होता है। गणधरों के साक्षात् शिष्यों के अनंतर समस्त अध्येताओं शिष्यों के लिए समस्त अर्थ रूप एवं सूत्र रूप आगम परंपरागम हैं। क्योंकि उन्हें अर्हतों एवं गणधरों से सीधा प्राप्त नहीं है, गुरु परम्परा से प्राप्त है।
आवश्यक नियुक्ति (गाथा-६२) में उल्लेख हुआ है - अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा णिउणं। सासणस्स हियाए तओ सुत्तं पवत्तेइ॥
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