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वर्तमानकाल
उगे हुए तृणों से युक्त वन, धान्य परिपूर्ण पृथ्वी, जल से भरे हुए कुण्ड, सरोवर, नदी, वापि और तालाबों को देखकर अच्छी वृष्टि होने का अनुमान करना अतीतकाल ग्रहण (अनुमान ) का स्वरूप है।
वर्तमानकाल
से किं तं पडुप्पण्णकालगहणं?
पडुप्पण्णकालगहणं - साहुं गोयरग्गगयं विच्छिड्डियपउरभत्तपाणं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा - सुभिक्खे वट्टइ। सेत्तं पडुप्पण्णकालगहणं ।
शब्दार्थ - साहुं साधु को, गोयरग्गगयं - गोचरी (भिक्षा) के लिए गए हुए, विच्छिड्डियपउरभत्तपाणं - पर्याप्त मात्रा में ( यथावश्यक) आहार- पानी ग्रहण करते हुए देखकर, सुभिक्खे - सुभिक्ष- सुकाल, वट्टइ - वर्तते है ।
भावार्थ - वर्तमानकाल गृहीत अनुमान का क्या स्वरूप है ?
भिक्षा हेतु गए हुए साधु को पर्याप्त आवश्यकतानुरूप आहार- पानी प्राप्त करते हुए देखकर यह अनुमान किया जाता है कि यहाँ सुकाल है।
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यह वर्तमान काल गृहीत अनुमान का स्वरूप है ।
विवेचन - सुभिक्ष और दुर्भिक्षं शब्दों का प्रयोग भाषाशास्त्रीय दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। " सुलभा भिक्षा यंत्र तत्र सुभिक्षम्", "दुर्लभा भिक्षा यत्र तत्र दुर्भिक्षम् " इस व्युत्पत्ति के अनुसार इन दोनों शब्दों का आशय यह है कि जहाँ त्यागी भिक्षोपजीवी चारित्रात्माओं को भिक्षा यथेष्ट रूप में सुलभ होती है, उससे उस देश की संपन्नता, अन्नादि विषयक समृद्धता तथा उत्तम फसलों का बोध होता है। यद्यपि साधु-संतों को भिक्षा तो सभी देना चाहते हैं, किन्तु जब स्थितियाँ प्रतिकूल होती हैं तो लोग स्वयं ही कष्ट में होते हैं, पर्याप्त भिक्षा कैसे दे पाएँ?
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ये दोनों प्रयोग त्यागी साधुओं की निस्पृहता, निष्परिगृहीता एवं अकिंचनता का सूचन करते हैं, जो साधुत्व के अलंकरण है । भिक्षा देना गृहस्थों के लिए बहुत ही गौरव और आनंद की बात है, यह भी इससे सूचित होता है ।
देशकाल की तात्कालिक समृद्ध - असमृद्ध स्थिति के अंकन में साधुओं की भिक्षाचर्या को गृहीत करना भारतीय संस्कृति की आतिथ्यशीलता और साधुसेवा का परिचायक है।
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