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अनुयोगद्वार सूत्र
यह हुआ कि ऐसे नाम भी लोक में स्वीकृत हैं, चलते हैं जो तद् सूचक शब्दों द्वारा बोध्य अर्थ के अनुगामी नहीं होते। शब्द प्रयोग की इस विधा को जैन दर्शन में निक्षेप के रूप में अभिहित किया गया है।
__ नाम निक्षेप में नाम द्वारा सूचित अर्थ को खोजना आवश्यक नहीं होता, वह वस्तु या व्यक्ति विशेष की पहचान का द्योतक है।
(१०)
स्थापना आवश्यक से किं तं ठवणावस्सयं?
ठवणावस्सयं-जं णं कट्टकम्मे वा, चित्तकम्मे वा, पोत्थकम्मे वा, लेप्पकम्मे वा, गंथिमे वा, वेढिमे वा, पूरिमे वा, संघाइमे वा, अक्खे वा, वराडए वा, एगो वा, अणेगो वा, सम्भावठवणा वा, असन्भावठवणा वा, 'आवस्सए' त्ति ठवणा ठविजइ। सेत्तं ठवणावस्सयं।
शब्दार्थ - ठवणावस्सयं - स्थापना आवश्यक, कट्ठकम्मे - काठ पर खोदा हुआ आकार विशेष, चित्तकम्मे - चित्र कर्म - भित्तिका, वस्त्र आदि पर निर्मित चित्र, पोत्थकम्मेताड़पत्र, भोजपत्र, वस्त्र आदि पर लिपिबद्ध अक्षरात्मक आकार, लेप्पकम्मे - दीवाल आदि पर मृत्तिका का लेपन कर उकेर कर बनाया गया आकार, गंथिमे - ग्रंथिम - सूत्र आदि में गांठे लगाकर बनाई गई आकृति, वेढिमे - वेष्टिम - एकाधिक सूत, वस्त्र आदि को लपेट कर बनाया गया आकार, पूरिमे - पूरिम - ताम्र, पीतल आदि को गलाकर, सांचे में ढालकर बनाया गया आकार, संघाइमे - संघातिम - कई वस्तुओं को जोड़कर बनायी गयी आकृति, अक्खे - अक्ष - शतरंज या चौसर के पासे, वराडए - वराटक - कौड़ी पर बनाया गया आकार विशेष, सब्भाव - सद्भाव, ठविज्जइ - स्थापित किया जाता है।
भावार्थ - स्थापना आवश्यक का स्वरूप कैसा होता है?
काष्ठ कर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म, ग्रंथिम, वेष्टिम, पूरिम, संघातिम अक्ष अथवा वराटक में अंकित, चित्रित एक या अनेक आकृतियों के रूप में जो सद्भाव या असद्भाव रूप स्थापना की जाती है, वह स्थापना आवश्यक है।
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