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पंचविध शरीर
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आहारक में से अधिकतम दो ही हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी संसारी जीव के अधिकतम चार शरीर हो सकते हैं।
इस अधिकतम व्यवस्था में आहारक एवं वैक्रिय का विकल्प होता है अर्थात् प्रथम'तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रिय' तथा द्वितीय - 'तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक'। यहाँ स्पष्ट है, वैक्रिय तथा आहारक - दोनों युगपत् रूप में प्रयुक्त नहीं हो सकते। क्योंकि वैक्रिय और आहारक लब्धि का प्रयोग एक साथ संभव नहीं है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है - शक्तिरूप में ये पाँचों शरीर भी हो सकते हैं, क्योंकि आहारक लब्धि वाले मुनि के वैक्रिय लब्धि निश्चित रूप में होती ही है।
'प्रथम' शरीर-स्थिति कुछ मनुष्यों तथा तिर्यंचों में पायी जाती है तथा 'द्वितीय विकल्प' चतुर्दश पूर्वधारी मुनियों में ही संभव है। इसी प्रकार तैजस, कार्मण और औदारिक या तैजस्, कार्मण और वैक्रिय रूप त्रिसंयोजन विकल्प की स्थिति भी संभव है। ये क्रमशः मनुष्य एवं तिर्यंचों में तथा देव व नारकों में जन्म से मृत्यु पर्यन्त होती है। .. जैसा पूर्व में विवेचित हुआ है, तैजस्, कार्मण, वैक्रिय और आहारक स्थूल नहीं होते हैं। अतः जीव में समुचित रूप से रहने पर भी इनका अन्तर्विरोध घटित नहीं होता। दूसरे शब्दों में इन्हें एक ही प्रकोष्ठ में जलते हुए एकाधिक दीपकों के निर्बाध प्रकाश से उपमित किया जा सकता है। ___जो काल-क्रम से जीर्ण होता जाता है, वह औदारिक है। औदारिक शब्द 'उदार' से निष्पन्न हुआ है। उदार का एक अर्थ विशाल या 'स्थूल' भी है। पूर्व वर्णित पंचविध शरीरों में यह सर्वाधिक स्थूल होता है। तिर्यंच और मनुष्य योनि में यही तैजस् और कार्मण के साथ प्रकट रूप में दृष्टव्य होता है। यह पुद्गल निर्मित होने से नाशवान होता है। इसका छेदन-भेदन किया जा सकता है। यह सड़न-गलन स्वभाव युक्त होता है। औदारिक शरीर के प्रदेश अलग होने के बाद पुनः संयुक्त होने में समर्थ नहीं होते हैं।
जो भिन्न-भिन्न रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है, वह वैक्रिय है। वैक्रिय शरीर के उपपातजन्य एवं लब्धिजन्य के रूप में दो प्रकार हैं। नारकों एवं देवों में ही उपपातजनित या भवप्रत्यय शरीर होता है। किन्हीं-किन्हीं तिर्यंचों एवं मनुष्यों में भी (वह) लब्धिजन्य होता है।
जिस शरीर के प्रदेशों को इच्छानुसार छोटा, बड़ा, पतला, मोटा अर्थात् विविध रूपों में
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