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________________ ३६८ अनुयोगद्वार सूत्र परिवर्तित किया जा सके, वह वैक्रिय शरीर कहलाता है। रक्त, मांस, मज्जा आदि का अभाव होने से इसमें ऊपर वर्णित पश्चादवर्ती क्रम घटित नहीं होते। नारकीय जीवों की अपेक्षा से इसके प्रदेशों का छेदन, भेदन संभव है, परन्तु इनमें पुनः संयोजन की अभूतपूर्व क्षमता होती है। इसके दो प्रकार हैं। १. भव प्रत्यय - जो जन्म से प्राप्त होता है। नारक एवं देवताओं में यह आयुष्य के पूर्णत्व तक अस्तित्व में रहता है। २. लब्धिजन्य - यह विशिष्ट साधना द्वारा कुछ मनुष्यों (पन्द्रह कर्मभूमिजों के पर्याप्तों) एवं तिर्यंचों (बादर वायुकायिक पर्याप्तों एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्तों) को प्राप्त होता है। लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर की अधिकतम स्थिति औदारिक शरीर के आयुष्य तक ही संभव है। प्रयोग रूप में वह अन्तर्मुहर्त से अधिक नहीं होता है। ____चतुर्दश पूर्वधर ज्ञानीजनों के प्रयोजनवश आहारक शरीर होता है। चौदह पूर्वो के धारक मुनिजनवृन्द शुभ, विशुद्ध एवं व्याघात - बाधा रहित पुद्गलों से, अपनी विशिष्ट लब्धि द्वारा किसी प्रयोजन विशेष (प्राणी दया, ऋद्धिदर्शन, नवीन ज्ञान ग्रहण, शंका समाधान आदि) से इस शरीर की रचना करते हैं। ये मुनिवर्य एक हाथ प्रमाण स्वच्छ पुद्गलों के शरीर की रचना करते हैं। यह महाविदेह क्षेत्र में विचरते हुए तीर्थंकर या सर्वज्ञ के पास जाता है। वहाँ प्रश्न का समाधान प्राप्त कर वह हस्त प्रमाण आहारक शरीर लब्धिधारी मुनि के शरीर में प्रवेश करता है। यह सम्पूर्ण कार्य केवल अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है, वैक्रिय लब्धि और आहारक लब्धि का प्रयोग तथा उससे शरीर का निर्माण नियम से प्रमत्त दशा में ही होता है। जो विशिष्ट उष्मा रूप तथा तेजोमय होता है, परिभुक्त आहार आदि का परिणमन एवं दीपन करता है, वह तैजस शरीर है। यह भुक्त आहार के परिणमन, तदनंतर अनंत विशिष्ट अवयवों तक उत्पन्न रस को पहुँचाने का कार्य करता है। यह लब्धिजन्य तो नहीं है परन्तु कभी-कभी लब्धि के द्वारा तैजस शरीर से तेजो निःसर्ग (उष्ण तेजोलेश्या तथा शीतल तेजोलेश्या) भी संभव है। शुभ-अशुभ प्रवृत्तियों से अर्जित कर्म पुद्गलों को समुच्चय - समूह कार्मण शरीर है। आत्मसंश्लिष्ट कर्म-समुदाय ही कार्मण शरीर कहलाता है। केवल जैन दर्शन में ही कर्मों को पुद्गल-स्वरूप माना गया है। कर्म-पुद्गलों पर ही शरीर-रचना आधारित है। अतः इसे अन्य शरीरों का जड़ रूप माना जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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