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________________ ३६६ अनुयोगद्वार सूत्र प्रकार उत्तरोत्तर यह क्रम गतिशील है। अर्थात् वैक्रिय में प्रदेशों की संख्या औदारिक से असंख्यात अधिक है। फिर भी वह औदारिक से स्थूल नहीं है, क्योंकि उसमें सभी प्रदेश सघन - सटे हुए, सूक्ष्म रूप में इस प्रकार व्यवस्थित हैं कि आकार नहीं बढ़ पाता। इसे लकड़ी और लोहे के स्थूल उदाहरण से समझा जा सकता है। एक किलोग्राम लकड़ी और एक किलोग्राम लोहे में सामान्यतः यह देखा जा सकता है कि आकार, परिणाम में तो लकड़ी अवश्य ही लोहे से बड़ी दृष्टिगत होती है परन्तु प्रदेशों की विरलता - अल्प संयुज्यता के कारण उसमें लोहे के समान भार परिलक्षित नहीं होता। शीशम, नीम, बबूल, आम आदि में भी सघनता से विरलता दिखलाई देती है। तैजस एवं कार्मण शरीर प्रतिघात एवं अवरोध से रहित होते हैं। 'प्रतिघात' का तात्पर्य प्रहार से हैं तथा अवरोध ‘बाधा' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह वैज्ञानिक तथ्य है, जो पदार्थ जितना अधिक सूक्ष्म होता है, उसकी गति उतनी ही अधिक होगी। अर्थात् सर्वत्र प्रवेश करने में समर्थ होगा। तैजस और कार्मण शरीर ऊपर वर्णित पंच शरीरों में सर्वाधिक सूक्ष्म हैं। अतः. इसकी गति सम्पूर्ण लोक में अव्याहत रूप में होती है। इसके अलावा यहाँ यह भी ज्ञातव्य है, प्रतिघात, विरोध आदि तो मूर्त पदार्थों में संभव है, जबकि ये तो अमूर्त हैं। वैक्रिय और आहारक भी सूक्ष्म तो हैं परन्तु तैजस और कार्मण से स्थूल होने से लोक के त्रस नाड़ी क्षेत्र में ही अव्याबाध रूप में गति करने में सक्षम हैं। तेजस एवं कार्मण शरीर का आत्मा के साथ अनादि संबंध है। इसका तात्पर्य है - इनका अस्तित्व आत्मा के साथ प्रारंभ से ही बना हुआ है। यहाँ यह ज्ञातव्य है - तैजस और कार्मण का आत्मा के साथ अनादि संबंध प्रवाह रूप है। दूसरे शब्दों में इनका भी ह्रस-विकास, अपचयउपचय होता है। ये भी सिद्धावस्था प्राप्त होने पर तो नष्ट होते ही हैं, आत्मविलग होते ही हैं। संसारी प्राणियों के कम से कम दो तथा अधिक से अधिक चार शरीर होते हैं। वैक्रिय शरीर तिर्यंचों एवं मनुष्यों में किन्हीं के तथा नारकों एवं देवों में सभी को होता है। सभी संसारी जीवों में तैजस और कार्मण - ये दो शरीर अवश्य ही होते हैं। भले ही अन्य का योग हो या न हो। तैजस और कार्मण - केवल इन दो शरीरों का अस्तित्व 'अन्तरालगति' में पाया जाता है। कार्मण शरीर सभी शरीरों का मूल रूप है, क्योंकि यह कर्म स्वरूप है। इसी प्रकार भुक्त आहार के पाचन आदि में तैजस शरीर की भी प्रासंगिकता है। अतएव संसार में जीवन पर्यन्त ये दोनों शरीर को निश्चित ही रहते हैं परन्तु अन्य तीनों - औदारिक, वैक्रिय और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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