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तेयए ४ कम्मए ५ ।
पंचविध शरीर
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कइविहा णं भंते! सरीरा पण्णत्ता ?
गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता । तंजहा - ओरालिए १ वेउव्विए २ आहारए ३
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पंचविध शरीर
भावार्थ - हे भगवन्! शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ?
हे आयुष्मन् गौतम ! शरीर पांच प्रकार के कहे गये हैं १. औदारिकं २. वैक्रिय ३. आहारक ४. तैजस और ५. कार्मण ।
विवेचन औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस एवं कार्मण के रूप में शरीर के पाँच प्रकार हैं। इन शरीरों में आगे से आगे, अधिकाधिक सूक्ष्मता होती है। प्रारंभ के तीन शरीरों के प्रदेश क्रमशः. असंख्यात गुण अधिक होते हैं। आगे के दो शरीरों के प्रदेश क्रमशः अनंत गुणा अधिक होते हैं।
शरीर की उत्पत्ति से नवजीवन का आरंभ होता है। देहधारी जीव अनंत हैं। ये आपस में भिन्नता लिए रहते हैं। कार्य कारण आदि के सादृश्य की दृष्टि से इनके उपर्युक्त पाँच विभाग किये गये हैं। यह क्रम इनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता को दिखलाता है अर्थात् औदारिक से वैक्रिय शरीर सूक्ष्म है परन्तु यह आहारक से स्थूल है। स्पष्ट है, यह क्रम पूर्वापर की अपेक्षा से है ।
औदारिक शरीर से वैक्रिय के प्रदेश असंख्यात गुणा अधिक, वैक्रिय से आहारक के प्रदेश असंख्यात गुणा अधिक, आहारक से तैजस के प्रदेश अनंत गुणा अधिक एवं तैजस से कार्मण शरीर के प्रदेश अनंत गुणा अधिक होते हैं।
संख्याओं के जो क्रम जैन वाङ्मय में स्वीकृत हैं, उनमें 'अनंत' उस संख्या को कहा गया है, जिसका कोई अन्त या पार नहीं होता । इस अनंत की अनेक कोटियाँ होती हैं। इसलिये अनंत से अनंत गुणा होना संभावित है। इसी अपेक्षा से तैजस शरीर के अनंत आत्मप्रदेशों से कार्मण शरीर का अनंत गुणा अधिक होना युक्ति संगत है। ऊपर वर्णित स्थूल और सूक्ष्म शब्द पुद्गलों के संयोजन की सघनता और विरलता को प्रदर्शित करते हैं, न कि परिणाम या आकार को। दूसरे शब्दों में, औदारिक से वैक्रिय सूक्ष्म है परन्तु प्रदेश असंख्यात गुणा अधिक हैं । इसी
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