________________
३६४
अनुयोगद्वार सूत्र
वणस्सइकाइया, असंखिजा बेइंदिया जाव असंखिजा चउरिंदिया, असंखिज्जा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, असंखिजा मणुस्सा, असंखिजा वाणमंतरा, असंखिजा जोइसिया, असंखिजा वेमाणिया, अणंता सिद्धा।
से एएणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-णो संखिजा, णो असंखिजा, अणंता॥ भावार्थ - हे भगवन्! क्या जीवद्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं (या) अनंत हैं? .. हे आयुष्मन् गौतम! न संख्यात हैं, न असंख्यात हैं (वरन्) अनंत हैं।
हे भगवन्! जीवद्रव्य न संख्यात हैं, न असंख्यात हैं (किन्तु) अनंत हैं, ऐसा किस कारण से कहा जाता है?
हे आयुष्मन् गौतम! असंख्यात नारक हैं, असंख्यात असुरकुमार - यावत् असंख्यात स्तनितकुमार देव हैं, असंख्यात. पृथ्वीकायिक जीव हैं यावत् असंख्यात वायुकायिक जीव हैं, अनंत वनस्पतिकायिक जीव हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय यावत् असंख्यात चतुरिन्द्रिय, असंख्यात. पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक है, असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यंतर देव हैं, असंख्यात ज्योतिष्क देव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं और अनंत सिद्ध हैं। आयुष्मन् गौतम! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि जीवद्रव्य न संख्यात हैं, न असंख्यात हैं वरन् अनंत हैं।
विवेचन - दर्शनशास्त्र में जीव या आत्मा का सर्वाधिक महत्त्व है। वह प्रयोग, भोग, योग और त्याग रूप है। प्रयोक्ता एवं भोक्तावस्था संसार है, योग और त्याग संसारातीत होने के उपक्रम हैं। इनके द्वारा आत्मा जब समस्त कर्मावरणों से विमुक्त हो जाती है तो वही परमात्म स्वरूप बन जाती है तथा बद्धावस्था से छूटकर मुक्तावस्था पा लेती है। दर्शन की भाषा में वही परिनिर्वाण या मोक्ष है।
"जीवितः, जीवति, जीविष्यति-इति जीवः" - जो जीया है, जीता है और जीयेगा, वह जीव है। इससे जीव का त्रैकालिक अस्तित्व व्यक्त होता है। - संसारी और मुक्त के रूप में जीव के जो दो भेद किए गए हैं, वे उससे बद्धावस्था और मुक्तावस्था के द्योतक हैं। “संसरति-गच्छति-पुनरागच्छति जन्म-मरणात्मकं आवागमनं वा करोति-सः संसारी" - कर्मवश जो लोक में संसरणशील रहता है, जन्म-मरण के रूप में जिसके आवागमन का चक्र चलता रहता है, उसे संसारी कहा जाता है। संसारी जीव जब संपूर्ण कर्मों को संवर, निर्जरा एवं त्याग, तपस्या से पूर्ण रूप से क्षय कर देते हैं, तब मुक्त कहलाते हैं। ये दोनों ही अनादि-अनंत हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org