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जीवद्रव्य निरूपण
द्रव्य एक नित्य एवं शाश्वत है किन्तु " द्रवति विविध पर्यायानाप्नोति इति द्रव्यम्" के अनुसार उसमें पर्यायात्मक दृष्टि से परिवर्तन भी होता रहता है । एक पर्याय का व्यय-अन्य का उत्पाद, एक का उत्पाद अन्य का व्यय यह क्रम चलता रहता है। इसलिए " उत्पादव्यय - ध्रौव्य युक्तं सत्" - यह परिभाषा इस पर घटित होती है। तदनुसार जैन दर्शन अद्वैत वेदान्त की तरह न तो एकान्त नित्यत्ववादी है और न बौद्धदर्शन की तरह एकान्त अनित्यत्ववादी ही है। अस्तित्व की दृष्टि से इसमें नित्यत्व है तथा पर्यायों की दृष्टि से इसमें परिणमनशीलता, अनित्यता भी है।
यहाँ जीव और अजीव दोनों तत्त्वों का उल्लेख हुआ है। क्रमिक दृष्टि से जीव प्रथम है और अजीव द्वितीय। किन्तु जीव से पूर्व अजीव का विवेचन किया गया है। इस क्रमव्यवच्छेद का कारण यह है कि जीव तत्त्व भेद-प्रभेदात्मक दृष्टि से अत्यंत विस्तार युक्त है। इसकी तुलना में अजीव तत्त्व अल्प-विषयता लिए हुए है। इसलिए आगमकार को यह उचित लगा कि स्वल्पविषयात्मक को पहले वर्णित कर विस्तीर्णविषयात्मक को बाद में लिया जाय ।
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उपर्युक्त सूत्र में रूपी अजीव द्रव्यों के चार भेदों में “स्कंध देश और स्कंध प्रदेश " शब्द आये हैं, उनका आशय यह है कि स्कंध के साथ में जुड़े हुये बुद्धिकल्पित आधा, तिहाई आदि विभागों को स्कंध देश कहा जाता है, ये ही विभाग जब अलग हो जाते हैं तब वे स्वतंत्र स्कंध कहे जाते हैं। दूसरी प्रकार स्कंध के साथ रहे हुये अविभागी सूक्ष्म अंशों को स्कंध प्रदेश कहा जाता है। ये ही अंश जब स्कंध से अलग हो जाते हैं तब वे परमाणु पुद्गल के नाम से कहे जाते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय ये तीनों एक ही द्रव्य होने से एवं कभी भी खंडित नहीं होने से इनका बुद्धि से कल्पित आधा आदि भाग देश तथा अविभागी अंश प्रदेश कहा जाता है।
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जीवद्रव्य निरूपण
जीवदव्वा णं भंते! किं संखिज्जा असंखिज्जा अनंता ?
गोयमा ! णो संखिज्जा, णो असंखिज्जा, अनंता ।
सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ - णो संखिज्जा, णो असंखिज्जा, अनंता ?
मोयमा ! असंखिज्जा णेरइया, असंखिज्जा असुरकुमारा जाव असंखिज्जा थणियकुमारा, असंखिज्जा पुढविकाइया जाव असंखिजा वाउकाड़या, अणंता
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