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अनुयोगद्वार सूत्र
(८)
निक्षेपानुरूप निरूपण से किं तं आवस्सयं?
आवस्सयं चउन्विहं पण्णत्तं। तंजहा - णामावस्सयं १ ठवणावस्सयं २ दव्वावस्सयं ३ भावावस्सयं ४।
शब्दार्थ - तं - वह, ठवणा - स्थापना, दव्व - द्रव्य। भावार्थ - वह आवश्यक कैसा है? आवश्यक नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव के रूप में चार प्रकार का प्रतिपादित हुआ है।
विवेचन - प्रस्तुत प्रकरणगत आवश्यक शब्द कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ देता है। इसके मूल में अवश्य शब्द है। अवश्य उस कार्य को कहा जाता है, जिसे करना ही पड़े, जिसे किए बिना नहीं रहा जा सके। दूसरे शब्दों में, जो अनिवार्य हो, वह आवश्यक है।
वृत्तिकार ने आवश्यक शब्द की अनेक प्रकार से व्युत्पत्ति की है -
'अवश्यं कर्त्तव्यमित्यावश्यकम्' - इस व्युत्पत्ति के अनुसार अवश्य करने योग्य धार्मिक उपकरणों का विधायक होने से इसे 'आवश्यक' कहा गया है।
दूसरी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है -
'आ - समन्ताद्गुणानां वश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकम्' - जो गुणों को आत्म-वशगत बनाता है, आत्मा में गुणों को सन्निहित करता है, निष्पादित करता है, वह आवश्यक है।
तीसरी व्युत्पत्ति अन्य प्रकार से भी की गई है -
'आ - समन्ताद वश्या - वशगता भवन्ति इन्द्रियकषायादि भावशत्रवो यस्मात्तदावश्यकम्'- इन्द्रिय एवं कषाय आदि भावशत्रु, जिसके द्वारा जीते जाते हैं, जिसके स्वीकरण से वश में किए जाते हैं, वह आवश्यक है।
प्राकृत के 'आवस्सयं' शब्द का संस्कृत रूप 'आवश्यकं' के अतिरिक्त 'आवासकं' भी होता है। इसे अधिकृत कर वृत्तिकार ने “गुणशून्यमात्मानं आ - समन्ताद् वासयति - गुणैः वासितं सुरभितं करोतीत्यावासकम्” - जो आत्मा मूल गुणों को भूल जाने से शून्यवत् है, उसे गुणों से सुवासित, सुरभित, पुनः संयोजित कर जो सुशोभित करता है, वह आवश्यक है।
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