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अनुयोगद्वार सूत्र
आगमों में विषय वैशिष्ट्य के आधार पर अध्ययनों के रूप में विभाजन परिलक्षित होता है । यह छह अध्ययनों में विभक्त है। इसलिए इसे एक अध्ययनरूप न कह कर अनेक अध्ययन रूप कहा गया है।
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आगमों में अध्ययनों का पुनः उपविभाजन उद्देशकों के रूप में दृष्टिगत होता है। जहाँ वर्ण्य विषय के नामनिर्देश के साथ प्रकरण विशेष का विवेचन होता है। इसमें वैसा उपविभाजन प्राप्त नहीं होता।
उपर्युक्त सूत्र में आये हुए कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं।
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अंग - तीर्थंकरों के अर्थ - उपदेशानुसार गणधरों द्वारा शब्दनिबद्ध श्रुत की अंग संज्ञा है।
श्रुतस्कन्ध अध्ययन का समूहात्मक बृहत्काय खंड श्रुतस्कन्ध कहलाता है।
अध्ययन -
शास्त्र के किसी एक विशिष्ट अर्थ के प्रतिपादक अंश को अध्ययन कहते हैं। उद्देश अध्ययन के अंतर्गत नामनिर्देशपूर्वक वस्तु का निरूपण करने वाला प्रकरण विशेष उद्देशक कहलाता है।
यहाँ पर आवश्यक सूत्र को अनंगप्रविष्ट - अंगबाह्य में बताया गया है। इसका कारण इस प्रकार से कहा जाता है -
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“यद्यपि आवश्यकादि अंगबाह्य सूत्र अंगसूत्रों से ही निर्यूहित होते हैं, इसलिये द्वादशांगी में तो आवश्यकादि समाविष्ट होने से गणधरों की रचना में तो उनका समावेश होता ही है। तथापि आगमकालीन युग में भी साधकों के लिये आवश्यक होने से सर्वप्रथम सामायिक आदि आवश्यक सीखाये जाते हैं । उभय सन्ध्या ही आवश्यक का काल होने से भी इनको कालिक नहीं कहा जा सकता। इसलिये भी इन्हें उत्कालिक कहा गया है । पश्चाद्वर्ती काल में तो विधिवत् अंगसूत्रों से इनका निर्यूहण हुआ है। इसलिये यह अंगबाह्य कहा गया है। अंगसूत्रों के आधार से स्थविरों ने इसकी रचना की है। इसीलिये भाष्यकारों ने 'गणहरथेरकयं वा, अंगाणंगेसु णाणत्तं' ‘अंगसूत्र गणधरकृत है और अंगबाह्य स्थविरकृत होते हैं।' ऐसा बताया है। नन्दी और अनुयोगद्वार में आवश्यक को अंगबाह्य बताया है। इसलिये औपपातिक आदि की तरह आवश्यक भी स्थविरकृत है। अंगसूत्रों के भावों को लेकर स्थविरों के द्वारा स्थविरों के शब्दों में रचा जाने से इसकी उत्कालिकता स्पष्ट है। नन्दी सूत्र में तो आवश्यक व्यतिरिक्त के कालिक, उत्कालिक भेद किये हैं, जबकि अनुयोगद्वार सूत्र में उत्कालिक आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त भेद किये हैं। इसलिये अपेक्षा से आवश्यक को उत्कालिक माना है ।"
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