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भेद-विवक्षा : अभिधेय सूचन
ही प्रकार के जीवों के होते हैं। जब सम्यग्-दर्शन के साथ इनका योग होता है, तब वे ज्ञान कहे जाते हैं। जब मिथ्यादर्शन के साथ ये होते हैं, तब इनकी संज्ञा अज्ञान होती है। वे क्रमशः मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान कहे जाते हैं। यहाँ प्रयुक्त अज्ञान शब्द ज्ञान के प्रतिषेध या अभाव का द्योतक नहीं है किन्तु मिथ्यादर्शनरूप कुत्सा का द्योतक है। मिथ्यादर्शन के साथ होने वाले अवधि ज्ञान को विभंगज्ञान (अवधि अज्ञान) कहा जाता है। जब विभंगज्ञानी सम्यक् दृष्टि प्राप्त कर लेता है तो मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान सहज ही मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का रूप ले लेते हैं। यों तीनों का क्रमिक संबंध घटित होता है।
अवधि ज्ञान रूपी या मूर्त पदार्थों को जानता है, जबकि मनःपर्यव ज्ञान मानसिक स्थितियों का बोध कराता है। इस अपेक्षा से अवधि ज्ञान स्थूलगामी एवं मतिज्ञान सूक्ष्मगामी है। दोनों में इस प्रकार तारतम्य घटित होता है। दूसरा तथ्य यह है, मनःपर्यव ज्ञान सम्यक्त्वी को ही होता है, मिथ्यात्वी को नहीं। इसलिए उत्कर्ष की अपेक्षा से यह अवधि ज्ञान से बढ़कर है।
केवलज्ञान सर्वातिशायी है। वह ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से निष्पन्न होता है। यह आत्मा की सर्वोत्कृष्ट अवस्थिति है। वहाँ कुछ भी अपरिज्ञात नहीं रहता है। • पूर्व के चारों ज्ञान कार्मिक क्षयोपशम जनित हैं।
(२) भेद-विवक्षा : अभिधेय सूचन -- तत्थ चत्तारि णाणाई ठप्पाइं ठवणिज्जाइं, णो उद्दिसिजंति है, णो समुद्दिसिजंति *, णो अणुण्णविजंति। सुयणाणस्स उद्देसो, समुद्देसो, अणुण्णा, अणुओगो य पवत्तइ। . 'शब्दार्थ - ठप्पाइं - स्थाप्य, ठवणिज्जाई - स्थापनीय, उद्दिसिज्जंति - उपदिष्ट होते हैं, समुद्दिसिज्जंति - समुपदिष्ट होते हैं, अणुण्णविनंति - अनुज्ञापित होते हैं, उद्देशो - उद्देश, समुद्देशो - समुद्देश, अणुण्णा - अनुज्ञा, अणुओगो - अनुयोग, पवत्तइ - प्रवर्तित होता है।
पाठान्तर - उद्दिस्संति * समुद्दिस्संति
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