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________________ अनुयोगद्वार सूत्र भावार्थ - उन पाँच ज्ञानों में श्रुतज्ञान को छोड़कर शेष चार ज्ञान स्थाप्य, स्थापनीय हैं - व्यवहार योग्य नहीं हैं। क्योंकि इन चारों ज्ञानों का उपदेश, समुपदेश नहीं दिया जाता, अनुज्ञा नहीं दी जा सकती। परन्तु श्रुत ज्ञान उपदिष्ट, समुपदिष्ट, अनुज्ञापित और अनुयोजित किया जाता है। विवेचन - श्रुत ज्ञान के अतिरिक्त चार ज्ञानों को स्थापनीय और स्थाप्य कहा गया है। जो स्थापनीय कहा गया है, उसका एक विशेष आशय है। व्याकरण के अनुसार स्थाप्य और स्थापनीय यत् और अनीय प्रत्यय द्वारा निष्पन्न रूप हैं। 'स्थापयितुं योग्यं स्थाप्यं स्थापनीयं वा।' जो स्थापित करने योग्य होता है, उसे स्थाप्य या स्थापनीय कहा जाता है। इन विशेषणों द्वारा इन चारों की सीधी व्यवहार्यता से भिन्न होने का निषेध किया गया है। केवल श्रुतज्ञान ही व्यवहार्य, वचन, श्रवण एवं अभिव्यक्ति का माध्यम है। क्योंकि तद्भिन्न चारों ज्ञान तद्तद्विषयक आवरणों के नष्ट होने से प्रकट होते हैं। मति, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान गुरु या शिक्षक के उपदेश से नहीं प्राप्त होता है। इसलिए उनके उपदिष्ट, समुपदिष्ट, अनुज्ञात एवं अनुयोजित न होने का कथन किया गया है। यद्यपि श्रुतज्ञान के आविर्भाव में श्रुतज्ञानावरण का मिटना हेतु अवश्य है किन्तु साथ ही साथ उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम, उपदेश, अनुज्ञा आदि भी हैं। श्रुतज्ञानावरण के क्षायोपशमिक भाव के अनुरूप श्रोता, शिक्षार्थी या ज्ञानार्थी में प्रज्ञा का तारतम्य रहता है। एक ही गुरु से श्रुतज्ञान का श्रवण, अध्ययन करने वाले किसी ज्ञानार्थी की ग्रहण शक्ति अति तीव्र एवं प्रत्यग्र होती है तथा उसी के सतीर्थ्य - सहपाठी किसी अन्य की ग्रहण शक्ति एवं बुद्धि अतीव मंद होती है। यह श्रुतज्ञानावरण के क्षायोपशमिक भाव की तरतमता के कारण है। किन्तु यहाँ इतना अवश्य है कि तीव्र या मंद, जिस किसी बौद्धिक रूप में श्रुतज्ञान के अर्जन में उपदेश, अनुज्ञापन एवं शिक्षण तो अपेक्षित है ही क्योंकि वचन और श्रवण अभिव्यक्ति के माध्यम हैं, जिनका संबंध श्रुतज्ञान से हैं। ___ आगम, शास्त्र श्रुतज्ञान के उपादान हैं। इनकी अभिधेयता की दृष्टि से यह सूत्र यहाँ उपस्थापित है। ___ इसका अभिप्राय यह है कि अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान ज्ञेय का साक्षात्कार कराते हैं। ज्ञानी द्वारा ज्ञेय ज्ञात हो जाता है। ज्ञात विषयों की अभिव्यक्ति, प्रतिपादन, विवेचन आदि शब्दों द्वारा किए जाते हैं। ग्रहण करने योग्य, त्याग करने योग्य विषयों का आदेश, प्रतिषेध आदि शब्दों द्वारा ही किए जाते हैं। जो श्रुतज्ञान के उपादान हैं। यों मति, अवधि, मनःपर्यव एवं केवलज्ञान ज्ञापनावस्था में श्रुतज्ञान का माध्यम अपनाते हैं, तद्रुपावस्था प्राप्त कर लेते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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