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अनुयोगद्वार सूत्र
४. मनःपर्यव ज्ञान - मनोवर्गणा के वे पुद्गल जो समनस्क जीवों द्वारा काययोग से गृहीत होते हैं, मननात्मक-मनोरूप में परिणत होते हैं, उनकी मन संज्ञा है। 'मनःपर्यव' शब्द मनस्, परि, अव के मेल से बना है। 'परि' उपसर्ग का अर्थ सर्वथा या सर्वतोभावेन है। अव शब्द 'अव' धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ रक्षण, गमन के साथ-साथ अवगम-जानना भी है। तदनुसार समनस्क जीवों द्वारा किए जाने वाले मनन प्रसूत मनः परिणामों को अवगत करना मनःपर्यव ज्ञान है।
मनःपर्यव ज्ञान को मनः पर्याय ज्ञान भी कहा जाता है। जो मनः, परि तथा आय के मेल से बना है। इनमें आय शब्द 'आ' उपसर्गपूर्वक 'या' धातु से बना है, जिसका अर्थ प्राप्ति है। मनःपर्यव और मनःपर्याय इसीलिए समानार्थक हैं। इस ज्ञान के द्वारा एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के मन के भावों को अवगत करने में, जानने में सक्षम होता है।
५. केवल ज्ञान - 'केवल' शब्द-एक, मात्र, असाधारण, पूर्ण, समस्त, परम, अनावृतआदि अनेक अर्थों का द्योतक है। ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने पर जो संपूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है, उसे केवलज्ञान कहा जाता है। जिन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, वे विश्ववर्ती संपूर्ण ज्ञेय पदार्थों को, उनके त्रिकालवी गुणपर्यायों के साथ हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानते हैं। वह अव्याहत, अप्रतिहत, अनुपम एवं अनुत्तर होता है।
पंचविध ज्ञान का क्रम-निर्देश वैशिष्ट्य, वैलक्षण्य एवं तारतम्य के आधार पर पाँचों ज्ञानों का क्रम निर्दिष्ट हुआ है। जैन दर्शन की यह मान्यता है कि मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान यत्किंचित् रूप में, न्यूनाधिक तथा संसार के समग्र सम्यग्दृष्टि प्राणी वर्ग में होते हैं। इसलिए ये दो ज्ञान क्रमशः पहले लिए गए हैं। इन दो में भी मतिज्ञान को श्रुतज्ञान से पूर्व लिए जाने का यह कारण है कि श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है। मननात्मकता के अनंतर ही प्रत्यायकता या परप्रत्यायकता सिद्ध होती है। पहले चिंतन या मनन होता है फिर अभिव्यक्ति होती है। जो क्रमशः इन दोनों ज्ञानों से संबद्ध है।
अवधिज्ञान यद्यपि पारमार्थिक प्रत्यक्ष में है किन्तु अपेक्षा विशेष के कारण उसका इन दोनों से सादृश्य भी है। क्योंकि मति, श्रुत और अवधि - ये तीनों सम्यक्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि - दोनों
8 संस्कृत हिन्दी कोश (वामन शिवराम आप्टे), पृष्ठ - ३०२ ___ * तत्त्वार्थसूत्र, प्रथम अध्याय, सूत्र-२०
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