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मंगलमय विषय निर्देश
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का द्योतक है। 'नि' - नियतार्थता का बोधक है। जो बोध या ज्ञान ज्ञेय पदार्थ के अभिमुख होकर - उसे गृहीत करने में उत्सुक होकर, उसके निश्चित अर्थ की प्राप्ति की ओर जाता है, वह आभिनिबोधिक है। इसी का दूसरा नाम मति ज्ञान है। यह आभिमुख्य एवं नियतार्थकता मति ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणामूलक निष्पत्तिक्रम को व्यक्त करता है। ___ 'अभिनिबोधस्य इदम् आभिनिबोधिकम्' - के अनुसार यह अभिनिबोध से निष्पन्न ज्ञान का विशेषण है। . इसे ही मतिज्ञान कहा जाता है। 'मननात्मकं मतिः' के अनुसार यह मननमूलक है। जो अवग्रह आदि के रूप में घटित होता है। आभिनिबोधिक या मतिज्ञान इन्द्रिय. और मन के माध्यम से व्यक्त होता है।
२. श्रुत ज्ञान - 'श्रूयते इति श्रुतं' - जो सुना जाता है, श्रवण द्वारा अधिगत किया जाता है, वह श्रुत है। मतिज्ञान मननात्मक होने से स्वगत होता है। परप्रत्यायन क्षमं श्रुतं - जब औरों को वह प्रतीति कराने में सक्षम होता है तब वह श्रुत ज्ञान रूप में परिणत हो जाता है। परप्रत्यायकता या प्रतीतिकारकता उपदेश, विवेचन, विश्लेषण आदि से होती है। इसी कारण शास्त्रज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। क्योंकि शास्त्रों के अध्ययन, पठन या श्रवण से वह उत्पन्न होता है। द्वादशांग तथा पूर्वगत ज्ञान इसी में सम्मिलित है। इसी कारण चतुर्दश पूर्वधर ज्ञानी को श्रुतकेवली कहा जाता है। मतिज्ञान की ज्यों यह भी मन और इन्द्रियों द्वारा व्यक्त होता है किन्तु परिशीलनात्मक या मननात्मक होने से मन का इसमें अधिक महत्त्व है। इस अपेक्षा से इसे अनीन्द्रिय भी कहां है।।
३. अवधि ज्ञान - "अव समन्तात् धीयते इति अवधि अवधानम् वा" - जो परिव्याप्त रूप लिए अधिष्ठित होता है, उसे अवधि या अवधान कहा जाता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार अवधिज्ञान उस ज्ञान का सूचक है, जो मन और इन्द्रियों से प्राप्य ज्ञान की अपेक्षा अधिक व्यापक होता है। अर्थात् जो मन एवं इन्द्रिय जनित न होकर साक्षात् आत्मा द्वारा प्राप्त होता है। अवधि का एक अर्थ परिव्याप्तिमूलक सीमा भी है। उसके अनुसार अवधि ज्ञान की व्यापकता या मर्यादा रूपी या मूर्त द्रव्यों तक है। वह एक सीमा विशेष तक रूपी पदार्थों का साक्षात्कार कराता है।
___.+ तत्त्वार्थ सूत्र, २/२२
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