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अनुयोगद्वार सूत्र
___ आगम तो सर्वज्ञ, तीर्थंकर देव द्वारा उपदिष्ट एवं प्रमुख शिष्य गणधरों द्वारा संग्रथित हैं। वे तो स्वयं ही मंगलमय हैं। उनका आदि, मध्य, वसान सर्व मंगलमय है। अतएव तत्त्वतः कृत्रिम मंगलाचरण की वहाँ अपेक्षा नहीं है, किन्तु लोकजनीन व्यावहारिकता की दृष्टि से इसे मंगलसूत्र की संज्ञा दी गई है। ____ मंगलाचरण स्तुत्यात्मक के साथ-साथ वस्तु निर्देशात्मक भी माना गया है। धार्मिक या आध्यात्मिक श्रेयस्कर वस्तु या विषय स्वयं मंगलरूप है। अतएव सीधा उसका निर्देश भी . मंगलाचरण का रूप ले लेता है। यहाँ इसी पद्धति को स्वीकार किया गया है। .. .
ज्ञान आध्यात्मिक रत्नत्रय में एक हैं। सम्यग्-दर्शन एवं सम्यक्-चारित्र के साथ-साथ ज्ञान साधक के आत्मलक्ष्य की संपूर्ति में अनन्य हेतु है। 'पढमं नाणं तओ दया' इत्यादि सूक्त इसके परिचायक हैं। सम्यग्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान का साहचर्य पाकर उदात्त और ज्योतिर्मय बनता है। सम्यक्-चारित्र उससे प्रेरित और अनुस्यूत होकर आत्मसाधना में बलवत्ता निष्पन्न करता है। इन तीनों का समन्वय ही आत्मलक्ष्य की निष्पत्ति में आवश्यक है।
इस सूत्र में 'पण्णत्तं' क्रिया पद एक विशेष भाव का द्योतक है। ‘पण्णत्तं' का संस्कृत रूप प्रज्ञप्तं या प्रज्ञापितं होता है। ज्ञप्त या ज्ञापित से पूर्व 'प्र' उपसर्ग प्रकर्ष, उत्कर्ष या वैशिष्ट्य. का सूचक है। 'प्रकर्षेण विशेषरूपेण ज्ञप्तं अवबोधितम् - प्रज्ञप्तं' - जो विशेष रूप से ज्ञापित या अवबोधित किया गया हो, वह प्रज्ञप्त होता है। इस प्रकर्ष या वैशिष्ट्य से आगम निरूपित ज्ञान आदि का सर्वदर्शी, सर्वज्ञाता तीर्थंकर देव द्वारा निरूपित होना सूचित होता है। क्योंकि सर्वज्ञत्व ही उत्कृष्ट, विशिष्ट या सांगोपांग निरूपण का हेतु है। उन्हीं के द्वारा तत्त्वों का संपूर्णतः या सर्वदेशीय प्रज्ञापन, निरूपण संभव है।
पंचविध ज्ञान : स्वरूप १. आभिनिबोधिक ज्ञान - आभिनिबोधिक शब्द 'अभि' एवं 'नि' उपसर्ग तथा . 'बोध' के योग से बना है।
“उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते" -
व्याकरण शास्त्र के इस नियम के अनुसार उपसर्ग के प्रभाव से धातु का अर्थ किसी विशिष्ट अर्थ में, किसी विशिष्ट भाव की प्रतीति कराता है। तदनुसार 'अभि' उपसर्ग आभिमुख्य ।
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