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दस नाम - अव्ययीभाव समास
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तप्पुरिसे - तित्थे कागो-तित्थकागो, वणे हत्थी-वणहत्थी, वणे वराहोवणवराहो, वणे महिसो-वणमहिसो, वणे मऊरो-वणमऊरो। सेत्तं तप्पुरिसे।
शब्दार्थ - तप्पुरिसे - तत्पुरुष, तित्थे - तीर्थ में, कागो - कौवा, वणे - वन में, हत्थी - हाथी।
भावार्थ - तत्पुरुष समास का क्या स्वरूप है?
तत्पुरुष समास का स्वरूप इस प्रकार है - तीर्थ में या तीर्थ का कौवा तीर्थकाक कहा जाता है। जंगल का हाथी वनहस्ती कहा जाता है। जंगल का सूअर वनवराह, जंगल का भैंसा वनमहिष तथा जंगल का मोर वनमयूर कहा जाता है।
यह तत्पुरुष समास का निरूपण है।
विवेचन - तत्पुरुष समास में उत्तर पद प्रधान होता है। सारस्वत व्याकरण में इस संबंध में कहा गया है - "स एवाग्रिमः पुरुषः प्रधानं यस्यासौ तत्पुरुषः" - इसमें पूर्वपद के साथ लगी हुई द्वितीया विभक्ति से लेकर सप्तमी विभक्ति तक का लोप होता है। उसी के आधार पर इसके प्रथमा तत्पुरुष, द्वितीया तत्पुरुष, (इसी प्रकार) क्रमशः सप्तमी तत्पुरुष तक छः भेद होते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में जो उदाहरण दिये गये हैं, वे सप्तमी तत्पुरुष के हैं। नञ् तत्पुरुष, अलुक तत्पुरुष मुख्य हैं। नञ् तत्पुरुष अभाव या निषेध का बोधक है। इसमें किसी संज्ञा या सर्वनाम से पूर्व 'न' अव्यय विग्रह के पश्चात् वह 'न' स्वरादि पद के साथ 'अन्' के रूप में परिवर्तित हो जाता है तथा व्यंजन आदि पद के साथ 'अ' हो जाता है। जैसे - न अश्वः - अनश्वः, न ईश्वरः - अनीश्वरः, न ब्राह्मणः - अब्राह्मणः. न सत्यम - असत्यम। ___ अलुक् समास में समास होने पर भी पूर्व पद के साथ लगी हुई विभक्ति का लोप नहीं होता। अर्थात् विभक्ति के लोप का नियम यहाँ नहीं लगता। विभक्ति बनी रहती है तथा समस्त - समासयुक्त पद निष्पन्न हो जाता है। आत्मने पदम् - आत्मनेपदम्, परस्मै पदम् - परस्मैपदम्, अन्ते वासी - अन्तेवासी, सरसि जम् - सरसिजम्, खे चर - खेचर।
६. अव्ययीभाव समास से किं तं अव्वईभावे?
अव्वईभावे - अणुगामं, अणुणइयं, अणुफरिहं, अणुचरियं। सेत्तं अव्वईभावे समासे।
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