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अनुयोगद्वार सूत्र
और दोनों पद एक वचनांत हों तो अन्त में द्विवचनांत विभक्ति आती हैं। जैसे रामश्च लक्ष्मणश्च इति रामलक्ष्मणौ, महावीरश्च गौतमश्च इति महावीर - गौतम आदि ।
यदि बहुवचनांत पद हों, मिश्रित हों तो अन्त में एक वचनांत नपुंसकलिंग का प्रयोग होता है, जैसे - उपर्युक्त उदाहरण में ।
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आचार्य हेमचन्द्र के ‘सिद्ध- हेम - शब्दानुशासन' के अनुसार जिन प्राणियों में स्वाभाविक वैर होता है, वहाँ 'नित्य वैरिणाम्' सूत्र के अनुसार अन्त में एक वचनांत नपुंसकलिंग का प्रयोग होता है, जैसे- अहिश्च नकुलश्च - अहिनकुलम् ।
से किं तं बहुव्वीही समासे ?
बहुव्वीही समासे - फुल्ला इमम्मि गिरिम्मि कुडयकयंबा सो इमो गिरी फुल्लियकुडयकयंबो। सेत्तं बहुव्वीही समासे ।
खिले हुए, इमम्मि - इसमें, गिरिम्मि
पर्वत पर, कुडय
शब्दार्थ - फुल्ला कुटज, कयंबो - कदंब |
२. बहुव्रीहि समास
भावार्थ - बहुव्रीहि समास का कैसा स्वरूप है ?
बहुव्रीहि समास इस प्रकार का होता है -
इस पर्वत पर खिले हुए कुटज और कदम्ब के वृक्ष हैं, इसलिए यह पर्वत - 'फुल्लकुटज - कदंब' के नाम से अभिहित है ।
विवेचन - “अन्यपद प्रधानो बहुव्रीहिः " - जिस समस्त पद में जिन पदों का समास के रूप में सम्मिश्रण हुआ हो, उन पदों के अतिरिक्त जिसमें अन्य पद प्रधान हो, समास से निष्पन्न अर्थ किसी अन्य पद पर लागू हो, उसे बहुव्रीहि कहा जाता है । बहु का अर्थ बहुत तथा व्रीहि का अर्थ धान्य है। जिसके पास अधिक परिमाण में धान्य का संग्रह हो, उस पुरुष को ( जमींदार को ) बहुव्रीहि कहा जाता है। यहाँ वह पुरुष या जमींदार मुख्य है, बहुत और धान्य केवल उसके सूचक हैं, गौण हैं।
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सूत्र में “फुल्ला इमम्मि गिरिम्मि कुडयकयंबा सो फुल्लियकुडयकयंबो” - ऐसा जो उदाहरण दिया गया है, उसका यह तात्पर्य है कि जिस पर्वत पर विकसित कुटज और कदंब के वृक्ष हों, वह पर्वत 'फुल्ल कुटज कदंब' कहा जाता है। यहाँ कुटज और कदंब गौण हैं परन्तु पर्वत प्रधान है।
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