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अनुयोगद्वार सूत्र
विशिष्ट वृक्षों से समस्त इच्छाएं पूर्ण नहीं होती। अतः युगलिकों में परस्पर संघर्ष होता है। इस अवस्था या अव्यवस्था को मिटाने के लिए क्रमशः पन्द्रह कुलकरों की उत्पत्ति होती है।
पांच-पांच कुलकरों द्वारा ‘हकार' ('हा' - खेद प्रकटीकरण), 'मकार' ('मा'-ऐसा मत करो) तथा 'धकार' ('धिक्'-धिक्कार) की दण्ड नीति चलती है तथा लोग इतने मात्र से अनुशासित रहते हैं। यहाँ विशिष्ट वृक्षों की शक्ति क्रमशः क्षीण होती जाती है, फिर भी इनसे ही जीवन निर्वाह होता है। ___प्रथम से तृतीय आरे के समय तक यह भूमि ‘अकर्म भूमि' जैसे वातावरण वाली कहलाती है, क्योंकि यहाँ लोक निर्वाह हेतु असि (शस्त्रों की आजीविका), मसि (व्यापार), कृषि (खेती) द्वारा जीविकोपार्जन नहीं करना पड़ता।
प्रथम तीर्थंकर जन्म - जब तीसरा आरा समाप्त होने में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रहते हैं, तब अयोध्या (विनीता) नगरी में चौदहवें कुलकर से प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। इस समय काल प्रभाव से विशिष्टवृक्षों से कुछ भी प्राप्त नहीं होने से मनुष्य, क्षुधा-पीड़ित और व्याकुल हो जाते हैं। भावी तीर्थंकर इनके प्रति दयाभाव लाकर, उनके प्राणों के रक्षणार्थ वहाँ स्वतः उगे हुए २४ प्रकार के धान्यों और मेवों आदि को खाने की प्रेरणा देते हैं। यह धान्य अपरिपक्व होता है, पेट में पीड़ा उत्पन्न करता है, अतः अरणि काष्ठ · से अग्नि उत्पन्न कर उसमें धान्य पकाने को कहते हैं। सरल स्वभावी मनुष्य अग्नि प्रज्वलित कर उसमें धान्य डालते हैं, जिसे अग्नि भस्म कर देती है। वे निराश होकर पुनः भावी तीर्थंकर ऋषभ राजा की शरण में जाते हैं। तब वे कुंभकार की स्थापना कर उसे बर्तन बनाना सिखाते हैं। ४ कुल, १८ श्रेणियाँ और १८ प्रश्रेणियाँ स्थापित करते हैं। पुरुषों की ७२ कलाएं, स्त्रियों की ६४ कलाएं, १८ लिपियाँ और १४ विद्याएं आदि सिखलाते हैं। ये भविष्यकाल (पांचवें आरे) तक चलती रहती हैं। ____ जीताचार के अनुसार स्वर्ग से इन्द्र (शकेन्द्र) आकर भावी तीर्थंकर का राज्याभिषेक करते हैं तथा लग्नोत्सव द्वारा पाणिग्रहण करवाते हैं। तदनंतर ग्राम, शहर आदि में कुटुम्ब वृद्धि द्वारा भरत क्षेत्र में आबादी प्रसार पाती हैं। सम्पूर्ण राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था के अनन्तर सम्राट राज्य ऋद्धि का परित्याग कर संयम ग्रहण करते हैं। तपश्चर्या द्वारा घातिकर्मों का क्षय कर, केवल ज्ञानी होकर चतुर्विध धर्म-संघ की स्थापना करते हैं। आयुष्य पूर्ण कर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यहाँ राजकुल में प्रथम वक्रवर्ती का भी जन्म होता है। ये चौदह रत्न, नवनिधि
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