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________________ दसनाम - कालसंयोग निष्पन्न नाम २३६ + इत्यादि के धारक होते हैं। सम्पूर्ण भरत क्षेत्र पर एकछत्र राज्य कर अन्त में संयम धारण करते हैं तथा मोक्ष में जाते हैं। प्रथम चक्रवर्ती के नरक गति में जाने की संभावना नहीं है क्योंकि धर्म के प्रवर्तन के प्रारंभ में ऐसी अशुभ घटना नहीं होती है। ४. दुःषम-सुषम - तीसरे आरे की समाप्ति पर यह आरा प्रारम्भ होता है। इसका कालमान बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम होता है। यहाँ दुःख की प्रचुरता तथा सुख की अल्पता होती है। शुभ पुद्गल इत्यादि की अनन्त गुणी हानि होती है। देहमान ५०० धनुष, आयुष्य एक करोड़ पूर्व तथा पसलियाँ ३२ रह जाती हैं। दिन में एक बार भोजन की इच्छा होती है। इस आरे में छह संहनन, छह संस्थान तथा पांचों गतियों में जाने वाले जीव होते हैं। २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव तथा ६ प्रतिवासुदेव भी इसी आरे में होते हैं। इस आरे के अंतिम समय में देहमान सात हाथ, पसलियाँ १६ तथा आयुष्य १०० वर्ष झाझेरी रह जाता है। इस आरे के समाप्त होने में जब तीन वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रहते हैं तब चौबीसवें तीर्थंकर मोक्ष पधार जाते हैं। तदनंतर गौतम स्वामी १२ वर्ष, सुधर्म स्वामी ८ वर्ष तथा जम्बूस्वामी ४४ वर्ष पर्यंत केवली पर्याय में रहे। अर्थात् प्रभु महावीर के निर्वाण के पश्चात् ६४ वर्ष पर्यंत केवल ज्ञान रहा। इसके बाद भरत क्षेत्र में कोई भी केवली नहीं हुए। चौथे आरे में जन्में हुए मनुष्य को पांचवें आरे में केवलज्ञानं संभव है परन्तु पांचवें आरे में जन्मे हुए मनुष्य को केवलज्ञान नहीं होता है। . ५. दुःषम - चतुर्थ आरे की समाप्ति पर इक्कीस हजार वर्ष का यह आरा प्रारम्भ होता है। यहाँ दुःख की विपुलता होती है। सुख नाम मात्र का होता है। यहाँ आयुष्य १०० वर्ष से कुछ अधिक, पसलियाँ १६ तथा अवगाहना सात हाथ की रह जाती है। ___ इसकी उत्तर अवस्था में शरीरावगाहना उत्कृष्ट दो हाथ, आयुष्य उत्कृष्ट बीस वर्ष तथा पसलियाँ आठ रह जाती हैं। पृथ्वी का स्वाद प्रारम्भ में कुछ ठीक होता है, परन्तु अन्त में कुंभकार की राख के सदृश हो जाता है। यहाँ के मनुष्यों को एक दिन में प्रायः करके दो बार खाने की इच्छा होती है। मोक्ष का अभाव रहता है तथा विविध प्रकार की हीनताएं ही दृष्टिगोचर होती है। सर्वत्र अव्यवस्था छाई रहती है। ___ इसके अंतिम दिन शक्रेन्द्र का आसन चलायमान होता है। प्रलयकाल प्रारम्भ हो जाता है। आकाशवाणी द्वारा इसकी घोषणा होती है। प्रथम प्रहर में जैन धर्म, द्वितीय में अन्य धर्म, तृतीय में राजनीति और चौथे प्रहर में बादर अग्नि का विच्छेद हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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