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________________ दसनाम कालसंयोग निष्पन्न नाम कालमान बीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है। कालचक्र के कुल बारह आरक होते हैं। इस प्रकार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में ६-६ आरक होते हैं। इनका वर्णन निम्नांकित है - - १. सुषम - सुषम इस प्रथम आरे में मनुष्य के शरीर की अवगाहना तीन कोस एवं आयु तीन पल्योपम होती है। मनुष्य रूपवान् और सरल स्वभावी होते हैं। ये वज्रऋषभनाराच संहनन तथा समचतुरस्रसंस्थान के धारक होते हैं। इस काल में स्त्री - पुरुष यौगलिक रूप में उत्पन्न होते हैं। इनकी सभी इच्छाएं दस प्रकार के विशिष्ट वृक्षों से पूर्ण होती हैं। पृथ्वी का स्वाद मिश्री जैसा मीठा होता है। आहार में ३-३ दिन का अन्तर होता है। यहाँ आहार की मात्रा अल्पतम होती है, जो क्रमशः बढ़ती जाती है। - इस आरे के यौगलिक स्त्री-पुरुष की आयु जब छह मास शेष रहती है तो उनसे युगलिनी पुत्र-पुत्री का एक जोड़ा प्रसूत होता है। केवल उनपचास दिन के पालन-पोषण से ये स्वावलम्बी हो जाते हैं। यह आरा चार कोड़ा कोड़ी सागरोपम का होता है। - २. सुषम प्रथम आरे की समाप्ति के पश्चात् यह तीन कोड़ा कोड़ी सागरोपम का दूसरा आरा प्रारम्भ होता है । यहाँ पहले आरे की अपेक्षा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की उत्तमता में अनन्त गुणी हीनता आ जाती है। आहार इच्छा दो दिन के अन्तराल से होती है। यहाँ शरीर अवगाहन दो कोस, आयु दो पल्योपम तथा पसलियाँ १२८ रह जाती है। पृथ्वी का स्वाद शक्कर जैसा रह जाता है। - २३७ Jain Education International यौगलिक मृत्यु से छह मास पूर्व पुत्र-पुत्री युगल को जन्म देते हैं। यहाँ इनका पालनपोषण प्रथम आरे से अपेक्षाकृत अधिक दिन - ६४ दिन तक करना पड़ता है। शेष स्थितियाँ पूर्व के समान ही होती हैं। ३. सुषम-दुषम् - इसका कालमान दो कोड़ा - कोड़ी सागरोपम होता है। यहाँ भी दूसरे आरे की अपेक्षा से वर्ण, रस, गंध और स्पर्श में अनन्त गुणी हीनता परिलक्षित होती है, यहाँ एक कोस, एक पल्योपम और पसलियाँ चौसठ रह जाती हैं। एक दिन आयुष्य के अन्तर से आहार की इच्छा होती है। पृथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा रह जाता है। मृत्यु के छह माह पूर्व पुत्र-पुत्री युगल का जन्म होता है, जिनका ७६ दिनों तक पालन-पोषण करना होता है। अवगाहना इन तीनों आरों के तिर्यंच (सन्नी स्थलचर एवं सन्नी खेचर) भी यौगलिक होते हैं। तीसरे आरे को तीन भागों में विभक्त किया गया है। इसके दो भागों में तो ऊपर की सभी स्थितियाँ रहती हैं, परन्तु तृतीय भाग में अधिकांश काल बीत जाने पर अनन्तगुण हीनता के कारण · For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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