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नवनाम
★ काव्य प्रकाश - १, ४
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एक मात्र शान्त रस ही ऐसा है, जिसमें अपने - अपने निमित्तों का आश्रय लेकर विभिन्न भाव भिन्न-भिन्न रसों के रूप में परिणत होते हैं। फिर वे उसी में उपलीन हो जाते हैं।
जैनाचार्यों तथा मुनियों द्वारा रचित संस्तवनात्मक साहित्य शान्त रस का अति उत्तम उदाहरण है।
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प्रशान्त रस
एए णव कव्वरसा, बत्तीसादोसविहिसमुप्पण्णा ।
गाहाहिं मुणियव्वा, हवंति सुद्धा वा मीसा वा ॥ ३ ॥ सेत्तं णवणामे । काव्यरस, बत्तीसादोसविहिसमुप्पण्णा
शब्दार्थ - एए - ये, कव्वरसा बत्तीस दोषों के निवारण की विधि से उत्पन्न, मुणियव्वा - ज्ञातव्य, सुद्धा - शुद्ध, मीसा - मिश्र । भावार्थ - पूर्वोक्त गाथाओं में व्याख्यात नौ रस, बत्तीस काव्य दोष वर्जनपूर्वक विमुक्त होते हुए शुद्ध एवं मिश्र के रूप में दो प्रकार के हैं ॥ ३ ॥
यह नवनाम का स्वरूप है।
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विवेचन - पूर्व प्रसंग में काव्यपुरुष की चर्चा की गई है। जिस प्रकार व्यक्ति में काणत्व, खञ्जत्व, बधिरत्व, पंगुत्व आदि दोष होते हैं, उसी प्रकार काव्यशास्त्रियों ने काव्य में भी दुश्रवत्व, पुनरुक्तत्व, न्यूनपदत्व, अधिकपदत्व, संकीर्णत्व इत्यादि दोष बताये हैं ।
जिस प्रकार काणत्व, खञ्जत्व आदि दोषों से विमुक्त पुरुष का व्यक्तित्व उज्ज्वल और प्रभावक होता है, उसी प्रकार दोषशून्य काव्य उत्तम श्रेणी का होता है। यही कारण है कि आचार्य मम्मट ने काव्य की परिभाषा करते हुए लिखा है -
" तददोषी शब्दार्थो सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि । " ★
यहाँ तद् शब्द काव्य का सूचक है, जिसकी पहली विशेषता दोषरहितता है, जो " शब्दार्थों" "अदोषौ” विशेषण द्वारा प्रकट की गई है।
यहाँ शुद्ध और मिश्र के रूप में रसों के दो प्रकार बतलाए हैं, उसका यह आशय है जहाँ एक ही रस का प्रयोग हो, उसे शुद्ध तथा जहाँ एक ही स्थान पर एकाधिक रसों का प्रयोग हो, उसे मिश्रित कहा जाता है।
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