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________________ २२० अनुयोगद्वार सूत्र ६. प्रशान्त रस णिहोसमणसमाहाण-, संभवो जो पसंतभावेणं। अविकारलक्खणो सो, रसो पसंतो त्ति णायव्वो॥१॥ पसंतो रसो जहा- . सम्भावणिव्विगारं, उवसंतपसंतसोमदिट्ठीयं। ही जह मुणिणो सोहइ, मुहकमलं पीवरसिरीयं॥२॥ शब्दार्थ - णिद्दोसमणसमाहाण - हिंसा आदि दोषरहित, मनःसमाधि से उत्पन्न, पसंतभावेणं - प्रशांत भाव से, अविकारलक्खणो - विकार शून्यता रूप लक्षण युक्त, णायव्बो - जानने योग्य, सम्भावणिव्विगारं - सद्भावजनित निर्विकार, उवसंतपसंतसोमदिट्ठीयंउपशांत-प्रशांत सौम्यदृष्टि युक्त, ही - आत्मोल्लासबोधक अव्यय, सोहइ - शोभा पाते हैं, मुहकमलं - मुख रूपी कमल, पीवरसिरीयं - उत्तम-विशिष्ट शोभायुक्त। ____भावार्थ - जो हिंसा आदि दोषरहित, मनःसमाधि से उत्पन्न प्रशांत भाव से युक्त होता है तथा विकार-शून्यता जिसका लक्षण है, उसे प्रशांत रस जानना चाहिए॥१॥ प्रशांत रस का उदाहरण इस प्रकार है - सद्भावयुक्त, विकार रहित प्रशांत भाव से जो उत्पन्न होता है। कितने उल्लास का विषय है, सद्भावयुक्त, विकारशून्य, उपशांत-प्रशांत सौम्यदृष्टिमय, अत्यधिक कांतियुक्त मुनिवर्य का मुखकमल शोभित होता है। यह कितने आनन्द का विषय है॥२॥ विवेचन - निर्वेद - प्रशांत रस का स्थायीभाव है, जो तितिक्षा, विरक्ति, संयमानुभूति, तीव्रतम मुमुक्षा इत्यादि भावों से परिपुष्ट होकर रस रूप में परिणत होता है। यह उस आध्यात्मिक परमानंद का उद्भावक है, जिसकी साधक, मुनिजन, योगी सदैव आशा लिए रहते हैं। चैतसिक मालिन्य का अपाकरण कर विशुद्ध आत्मभाव का संचार इस रस में समुद्भूत होता है। सुप्रसिद्ध काव्यशास्त्री अभिनवगुप्त ने 'अभिनव भारती' में शान्त रस को ही एक मात्र मूल रस समुद्घोषित किया है - स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शान्ताद् भावः प्रवर्तते। पुनर्निमित्तापाये च शान्त एवोपलीयते॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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