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अनुयोगद्वार सूत्र
वे महापुरुष धन्य हैं, जो अपवित्र मल से परिपूर्ण निर्झर सदृश सब समय स्वभावतः दुर्गन्ध युक्त कलहमूल अत्यधिक कलुषित देहगत मूर्छा, आसक्ति या मोह का त्याग कर देते हैं।॥१,२॥
विवेचन - बीभत्स रस का स्थायी भाव घृणा है। जो शरीर बाहर से देखने में अत्यंत सुन्दर, मनोज्ञ प्रतीत होता है, यदि उसके भीतर के स्वरूप का चिन्तन किया जाय तो वह मलमूत्र, मांस, रुधिर, मज्जा आदि घृणित पदार्थों का पुञ्ज है। उसके वैसे रूप का चिन्तन अथवा प्रत्यक्ष दर्शन, भृत देह का दर्शन में अत्यन्त घृणा का भाव उत्पन्न करता है। सहज ही व्यक्ति सोचने लगता है कि ऐसे घृणायोग्य देह के साथ ममत्व के बंधन में बंधे रहना, उस पर अत्यन्त आसक्ति एवं मूर्छा रखना उसकी बहुत बड़ी भूल है। ऐसा चिन्तन उसके मन में वैराग्य उत्पन्न करता है, उसे लौकिक पदार्थों के प्रति ग्लानि का भाव उत्पन्न होता है एवं हिंसा आदि परिहेय कार्यों से दूर रहने की भावना उत्पन्न होती है। इस प्रकार वह संसार के सच्चे स्वरूप को समझ कर आत्मोत्थान के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा प्राप्त करता है।
७. हास्य रस रूववयवेसभासा-,विवरीयविलंबणासमुप्पण्णो। हासो मणप्पहासो, पगासलिंगो रसो होइ॥१॥ . हासो रसो जहापासुत्तमसीमंडिय-, पडिबुद्धं देवरं पलोयंती। ही जह थणभरकंपण-, पणमियमज्झा हसइ सामा॥२॥
शब्दार्थ - विवरीयविलंबणासमुप्पण्णो - विपरीतता के आलम्बन से उत्पन्न, मणप्पहासो - मानसिक प्रहास, पगासलिंगो - मुखादि विकास रूप-अट्टहास आदि, पासुत्तमसीमंडियपडिबुद्धं - प्रातः सोकर उठे हुए, काजल की रेखाओं से मंडित मुख युक्त, देवरं - देवर (पति का कनिष्ठ भ्राता), पलोयंती - प्रलोकयन्ती-देखती हुई, ही - आश्चर्य बोधक अव्यय, जह - यथा, थणभरकंपण - स्तनों के भार से कम्पित, पणमियमज्झा - झुके हुए देह के मध्य भाग से युक्त, सामा - युवती (श्यामा)।
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