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________________ नवनाम - बीभत्स रस २१७ समागम न करके स्वयं को सर्वथा पवित्र रखा है। अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए तथा नववधू के सतीत्व को प्रमाणित करने के लिए उसके सास-ससुर आदि पारिवारिक मुखिया लोग उस रक्तरंजित अधोवस्त्र को प्रत्येक घर में ले जाकर दिखाते हैं और उक्त नववधू की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते। अपने कुल की इस परम्परा को देखकर तथा अपने रक्तरंजित अधोवस्त्र की खुलेआम चर्चा सुनकर वह नववधू अत्यन्त लज्जित होती है। लज्जा के मारे वह अपनी आँख जमीन में गढ़ाए रखती है। प्रस्तुत उदाहरण में नववधू की लज्जाशीलता को व्यक्त करते हुए वीडनकरस प्रदर्शित किया गया है। वस्तुतः सहृदय व्यक्ति का मानस अपनी अनाचरणीय प्रवृत्ति के प्रकट होने तथा उसकी सर्वत्र चर्चा फैलने से वह लज्जा के भार से अत्यधिक दब जाता है। उस मनःस्थिति में वीडनकरस अपने पूरे यौवन में साकार हो उठता है। ६. बीभत्स रस असुइकुणिमदुईसण-, संजोगन्भासगंधणिप्फण्णो। णिव्वेयऽविहिंसालक्खणो, रसो होइ बीभच्छो॥१॥. बीभच्छो रसो जहा - असुइमलभरियणिज्झर-, सभावदुगंधिसव्वकालं पि। धण्णा उ सरीरकलिं, बहुमलकलुसं विमुंचंति॥२॥ शब्दार्थ - असुइ - अशुचि-मलमूत्र आदि अपवित्र पदार्थ, कुणिम - मृत देह-लाश, दुइंसण-संजोगब्भासगंधणिप्फण्णो - दूषित दर्शन के संयोग तथा दुर्गन्ध से उत्पन्न, णिव्वेयनिर्वेद, अविहिंसा - हिंसा से बचना, भरियणिज्झर - भरे हुए झरने, सभावदुग्गंधि - स्वभावतः दुर्गन्ध युक्त, सव्वकालं - सब समय, धण्णा - धन्य, सरीरकलिं - दैहिक कलेवर को, अथवा सर्वकलहमूल शरीर को, बहुमलकलुसं - अत्यधिक मल से कलुषित। . भावार्थ - अपवित्र मलमूत्र आदि से युक्त शरीर मृत देह को पुनः-पुनः देखने से, उनसे निकलने वाली दुर्गन्ध से जो उत्पन्न होता है, वह बीभत्स रस है। निर्वेद-भवोद्वेग तथा हिंसा आदि पाप कार्यों से निवृत्त रहने का भाव जो मन में उत्पन्न होता है, वह उसका लक्षण है। इसका उदाहरण इस प्रकार है - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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