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________________ नवनाम - रौद्र रस . २१५ शब्दार्थ - भयजणण - भयोत्पादक, रूवसबंधयार-चिंता-कहा - रूप, शब्द, अंधकार, चिंता एवं कथा, समुप्पण्णो - समुत्पन्न, सम्मोह - विवेक-वैकल्य-विवेक हीनता, संभम - आकुलता-बैचेनी, विसाय - विषाद-दुःख, मरणलिंगो - मृत्यु लक्षण रूप, भिउडिविडंबियमुहोभृकुटि को उपर चढ़ाकर विकराल मुख युक्त, संदट्ठोट्ट - सदंष्ट-ओष्ठ-ओठों को काटते हुए, रुहिरमाकिण्णो - रुधिर या रक्त से व्याप्त, असुरणिभो - राक्षस के सदृश, हणसि - मारते 'हो, भीमरसिय - भयानक शब्द, अइरोद्द - अत्यन्त रौद्र-भीषण रूप युक्त। __ भावार्थ - जो भयजनक रूप, शब्द, अंधकार-नैराश्यपूर्ण चिंतन एवं कथन से उत्पन्न होता है तथा जो सम्मोह, संभ्रम, विषाद तथा (मरण भीति रूप) शरण युक्त होता है, वह रौद्र रस है॥१॥ ... रौद्र रस का उदाहरण इस प्रकार है - ललाट पर भौंहें चढ़ाकर अपने मुख को विकृत बनाते हुए, ओठों को काटते हुए, रुधिर से व्याप्त, भयानक शब्द करते हुए, राक्षस की तरह तुम पशु की हत्या कर रहे हो। तुम अत्यन्त रौद्र-भयानक, साक्षात रौद्र रस हो। __ विवेचन - पुष्फभिक्खू एवं संघ द्वारा प्रकाशित मूल सूत्र वाली प्रति में 'मरणलिंगो' के स्थान पर 'सरणलिंगो' पाठ भी मिलता है। . यद्यपि सरणलिंगो का आशय भी रौद्र रस में घटित तो हो सकता है क्योंकि भयजनक पिशाच आदि के रौद्र रूप को देखकर वैसे शब्द सुन कर एवं अंधकार आदि में भयभीत बना हुआ व्यक्ति भयजनक पिशाच आदि को भगाने में समर्थ ऐसे शक्तिशाली की शरण की इच्छा कर सकता है। ..... . अनुयोग चूर्णि, हारिभद्रीयवृत्ति एवं मल्लधारी वृत्ति तथा श्री जंबूविजय जी संपादित अनुयोगद्वार में मरणलिंगो शब्द ही मिलता है। वहां पाठान्तर भी नहीं दिया है। अतः मरणलिंगो शब्द ही उचित प्रतीत होता है। आचार्य भरत ने जिन नौ रसों का उल्लेख किया है, उनमें एक भयानक नामक रस भी है। भय उसका स्थायी भाव है। आगमकार ने उसको पृथक् रस के रूप में नहीं लिया है। रौद्र रस में ही उसका समावेश हो गया है क्योंकि रौद्र रस का स्वरूप भी भीषण या भयोत्पादक है। आचार्य भरत के अनुसार रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। क्रोध एक ऐसा भाव है, जिसके कारण व्यक्ति का रूप बहुत विकराल और भीषण हो जाता है। ये देखते हुए रौद्र रस में भयानक रस का अन्तर्भाव बहुत ही संगत प्रतीत होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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