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________________ २१२ अनुयोगद्वार सूत्र विवेचन - काव्यशास्त्र में वीर रस के अन्तर्गत चार प्रकार के नायकों का उल्लेख है - १. धर्मवीर, २. दयावीर, ३. दानवीर एवं ४. युद्धवीर। ____ इसका तात्पर्य यह है कि धर्माराधना, करुणा, दानशीलता तथा युद्ध-कौशल - इन चारों में ही पराक्रम की आवश्यकता है। केवल समरभूमि में शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन करने वाला ही एक मात्र वीर नहीं है। धर्म क्षेत्र में भी जो आत्मबल और शक्ति का प्रदर्शन करता है, वह भी वीर है क्योंकि ऐसा करना कोई साधारण बात नहीं है। धर्म के क्षेत्र में राग, द्वेष, . काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि ऐसे दुर्जेय भावशत्रु हैं, जिन्हें नष्ट करने के लिए बहुत बड़े शौर्य की आवश्यकता है। __इसी प्रकार करुणा, दया या अनुकम्पा करना भी बड़ी वीरता का कार्य है, क्योंकि वैसा करने में अपने प्राण संकट में डालने होते हैं। इसी कारण करुणाशील पुरुष को भी वीर कहा गया है। किसी के पास विपुल धन-वैभव हो सकता है, किन्तु उसके लिए दानशील होना बड़ा कठिन है। धन के प्रति मनुष्य में एक ऐसी तीव्र आसक्ति बनी रहती है कि उसका परित्याग करना, विसर्जन करना, किसी दूसरे के सहयोग हेतु देना बहुत कठिन है। कहा गया है - शतेषु जायते शूरः, सहसेषु च पण्डितः। वक्ता शत-सहसेषु, दाता भवति वा न वा॥ अर्थात् सैंकड़ों में कोई एक शूरवीर - युद्ध में पराक्रमी होता है, हजारों में कोई एक पण्डित - ज्ञानी होता है तथा लाखों में कोई एक वक्ता होता है किन्तु दाता या दानी तो कोई होता है या नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि शूरवीर, पण्डित या वक्ता होना तो सहज सम्भव है किन्तु दानी या दानवीर होना बहुत कठिन है। ___इस सूत्र में जो वीर रस का उदाहरण दिया गया है, वह धर्मवीर से संबंधित है। धर्मवीर का आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व है क्योंकि काम-क्रोध, राग-द्वेष आदि शत्रुओं का क्षय कर जो समस्त कर्म-बंधनों को काट डालता है, वह जन्म-मरण से, आवागमन से मुक्त हो जाता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जीवन का परम साध्य अधिगत कर लेता है, परमानन्दमय, शाश्वतसुख संपन्न हो जाता है। आत्मसाम्राज्य का अधिपति बन जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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