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नवनाम - वीर रस
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विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से रस निष्पन्न होता है *।
'रस्यते-इति रसः' रस या आनन्द प्रदान करने के कारण इसकी रस संज्ञा है। काव्य शास्त्रियों ने रसात्मक आनन्द को ब्रह्मानन्द-सहोदर कहा है। यदि काव्य में रस न हो तो अलंकार, गुण आदि होने पर भी वह वास्तव में काव्य की श्रेणी में नहीं आता। इसीलिए साहित्य दर्पण में लिखा है - 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' रसात्मक या रसयुक्त वाक्य काव्य है ।
रस पर अनेक विद्वानों ने ग्रन्थ रचना की है, जिनमें पंडितराज जगन्नाथ का रसगंगाधर' अत्यन्त प्रसिद्ध है।
१. वीर रस तत्थ परिच्चायम्मि य, (दाण)तवचरणसत्तुजणविणासे य। अणणुसयधिइपरक्कम-,लिंगो वीरो रसो होइ॥१॥ वीरो रसो जहासो णाम महावीरो, जो रज्जं पयहिऊण पव्वइओ। कामकोहमहासत्तु-, पक्खणिग्घायणं कुणइ॥२॥
शब्दार्थ - परिच्चायम्मि - परित्याग में, तव-चरण - तपश्चरण में - तपस्या में, सत्तुजणविणासे - शत्रुजन का विनाश करने में, अणणुसय - गर्व या पश्चात्ताप का अभाव, धिइ - धृति-धैर्य, परक्कम - पराक्रम, लिंगो (चिण्हो) - लिंग - चिह्न या स्वरूप, रज्जं - राज्य, पयहिऊण- परित्याग कर, पव्वइओ - प्रव्रजित-दीक्षित, कामकोह - काम तथा क्रोध, महासत्तुपक्ख - महाशत्रु पक्ष, णिग्घायणं - निर्घातन-विनाश, कुणइ - करते हैं (किया)।
भावार्थ - गाथाएँ - परित्याग करने में जरा भी अभिमान न करना, तपश्चरण में धैर्य रखना, स्थिर रहना, काम तथा क्रोध रूपी महाशत्रुओं के पक्ष का नाश करना - यह वीर रस का लक्षण है।
' जैसे - राज्य का परित्याग कर जो प्रव्रजित हुए, काम, क्रोध जैसे महान् शत्रुओं का जिन्होंने विनाश किया, वे इसी कारण महावीर हैं॥१,२॥
* नाट्यशास्त्र - ६, ३१। * साहित्य दर्पण - १, ३।
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