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अनुयोगद्वार सूत्र
१. षड्जग्राम - ललिता, मध्यमा, चित्रा, रोहिणी, मतङ्गजा, सौवीरी एवं षण्डमध्या। २. मध्यमग्राम - पञ्चमा, मत्सरी, मृदु, मध्यमा, शुद्धा, अन्ता, कलावती, तीव्रा। ३. गान्धारग्राम - रौद्री, ब्राह्मी, वैष्णवी, रवेदरी, सुरा, नादावती, विशाला।
पुनश्च - 'ग्राम' क्रमिक सात स्वरों का समुच्चय है तथा ग्राम के सातवें भाग का, जिसमें सांगीतिक तन्मयता उत्कृष्टावस्था पा लेती है, मूर्च्छना है।
प्रस्तुत आगम में तथा यहां किए गए विवेचन में मूर्च्छनाओं के भेदों में जो अन्तर प्राप्त होता है, उससे प्रतीत होता है, संगीत शास्त्र में विविध अपेक्षाओं से स्वरग्राम, मूर्च्छना, आरोह-अवरोह, लय आदि पर उत्तरोत्तर चिन्तन, मंथन होता रहा है। ललित कलाओं में सर्वोत्कृष्ट एवं सूक्ष्मतम कला होने के कारण अनुभूतिपूर्ण तारतम्य होना स्वाभाविक है। उसी का परिणाम भेदों की भिन्नता आदि का प्राकट्य है।
इतना अवश्य कहा जा सकता है कि धर्म, अध्यात्म और तत्त्वदर्शन के साथ-साथ जैनागमों में अन्यान्य शास्त्रों पर भी गहन विवेचन हुआ है, जो उनके सार्वजनीन अनेकान्तवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। तभी तो यह माना जाता है कि चतुर्दश पूर्वो में, जो आज प्राप्त नहीं है, व्याकरण, न्याय, दर्शन, संगीत, काव्य, भूगोल, खगोल, अर्थशास्त्र इत्यादि का विशद विवेचन हुआ है।
सप्तस्वरोत्पत्ति सत्तसरा कओ हवंति?, गीयस्स का हवइ जोणी?। कइसमया ओसासा?, कइ वा गीयस्स आगारा?॥१॥ सत्तसरा णाभीओ, हवंति गीयं च रुइयजोणी। पायसमा ऊसासा, तिण्णि य गीयस्स आगारा॥२॥ आइमउ आरभंता, समुव्वहंता य मज्झयारम्मि। अवसाणे उज्झंता, तिण्णि य गीयस्स आगारा॥३॥
शब्दार्थ - जोणी - योनि - उत्पत्ति स्थान, ओसासा - उच्छ्वास, आगारा - आकार, णाभीओ - नाभि से, रुइय - रुदन, पायसमा - पादसम - चरणानुरूप, आइमउ - प्रारंभ में मृदु स्वर से, आरभंता - प्रारम्भ करते हुए, समुन्वहंता - समुद्वाह करते हैं - आगे बढ़ाते हैं, अवसाणे - अंत में, उज्झंता - छोड़ देते हैं।
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