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________________ सात स्वरों के ग्राम एवं मूर्च्छनाएं १६६ विवेचन - उपर्युक्त सूत्र में आए ग्राम और मूर्च्छना शब्द संगीत शास्त्र में विशिष्ट अर्थों के द्योतक हैं। ग्राम - ग्राम शब्द संग्रह या समूह का पर्याय है। संगीत शास्त्र में भी यह शब्द इसी अर्थ को लिए हुए हैं। यहाँ इसका आशय सप्तस्वरों के समूह से है। इसे स्वरग्राम या संक्षेप में ग्राम से अभिहित किया जाता है। किसी राग विशेष में जो स्वर लगते हैं, उनको स्वरग्राम (विशिष्ट स्वर समूह) कहते हैं। मूर्च्छना - यह शब्द वाद्ययंत्रों और इनमें भी मुख्यतः तार वाद्यों के संदर्भ में एक तकनीकी शब्द है। तार वाद्यों में बाह्य तारों के अलावा तुम्बी में नीचे सूक्ष्म तारों की बंधनी होती है। ज्यों ही बाह्य तारों को झंकृत किया जाता है, त्यों ही बंधनी के तार भी झंकृत होते हैं किन्तु उनकी ध्वनि मंद होने से सुनाई नहीं पड़ती। परन्तु जब बाह्य तारों की ध्वनि बंद हो जाती है तब बंधनी के तारों की क्रमशः विलीन होती मंद ध्वनि अतिमधुर एवं आनंदप्रद रूप में सुनाई पड़ती है। यह मूर्च्छित कर देने वाली सी मंद ध्वनि होने से इसे 'मूर्च्छना' कहा जाता है। मूर्च्छना के स्वर सभी तारवाद्यों और विशेषतः सितार, सरोद, वीणा आदि यंत्रों में सुनाई देते हैं। ... संस्कृत हिन्दी शब्दकोश (वामन शिवराम आप्टे) में मूछना के इन पर्यायों का उल्लेख है* - स्वरारोहण, स्वरविन्यास, स्वरों का नियमित आरोहण-अवरोहण, सुखद स्वरसंधान करना, लय परिवर्तित करना, स्वरसामंजस्य, स्वरमाधुर्य। . स्फुटी भवद्ग्राम विशेष मूर्च्छनाम् (शिशुपालवध १/१०) (संगीत में विशिष्ट ग्रामों के साथ विविध मूर्च्छनाएं स्फुटित हो रही थीं) वर्णानामपि मूच्र्छनान्तरगतं तारं विरामे मृदु (मृच्छकटिकम्-३/५) - (संगान में विविध स्वरों के आरोह से अवरोह में आने पर तंत्री में सुनाई देने वाली, मृदु ध्वनि मूर्च्छना है) ___ आचार्य भरत के मत में गाते समय गले को कम्पाने से ही मूर्च्छना उद्भूत होती है। अन्य कई स्वर के सूक्ष्म विराम को भी मूर्च्छना कहते हैं। संगीत दामोदर में भी षड्ज, मध्यम एवं गांधार के रूप में तीन ग्राम बतलाए गए हैं लेकिन उनकी सात-सात मूर्च्छनाओं में आगमगत नामों से भिन्नता है। इनके नाम एम. आर. ए. एस. नागेन्द्रनाथ वासु के इन्साइक्लोपीडिया इन्द्रिका (भाग १८) के अनुसार ये हैं - * संस्कृत हिन्दी शब्द कोश, पृष्ठ ८१० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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