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पारिणामिक भाव
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दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं न प्ररोहति अङ्कुरः। कर्म बीजे तथा दग्धे न प्ररोहति भवांकुरः॥
उपशम उस अग्निपुंज के समान है, जिसके ऊपर राख की परत आ गयी है किन्तु भीतर अग्नि विद्यमान है। परत के हटते ही वह जला देता है। उपशम में कर्म सर्वथा क्षीण नहीं होता। वह उपशांत होता है। क्षायोपशमिक में कर्म की कुछ प्रकृतियाँ क्षीण होती हैं, कुछ उपशांत होती हैं। कर्मों के सर्वथा क्षय हुए बिना मुक्ति संभव नहीं है। इसीलिए "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः' यह कहा गया है। इन तीनों ही भावों का उपर्युक्त शास्त्रों में तथा उत्तरवर्ती कर्मग्रन्थों में जो विशद विवेचन हुआ है, वह वास्तव में बड़ा अद्भुत है। जिज्ञासुओं के लिए यह बड़ा बोधप्रद है।
विशेष ज्ञातव्य - यहाँ पर क्षायोपशमिक भाव में सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि एवं सम्यग्मिथ्या-दर्शनलब्धि इन तीन लब्धियों को बताया गया है। भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशक ५ में अरूपी के भेदों में जो तीन दृष्टियाँ बताई गई हैं, उन्हीं को यहाँ पर तीन लब्धियों के नाम से बताया गया है।
मिथ्यात्व मोहनीय कर्म रूपी होने से मिथ्यात्व मोह को रूपी कहा गया है। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा के जो अध्यवसाय होते हैं उन्हें मिथ्यादर्शन कहते हैं। आत्मा के परिणाम अरूपी होने से मिथ्यादर्शन को भी अरूपी माना गया है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन एवं मिश्रदर्शन को भी समझना चाहिये। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के पूर्ण क्षय से तो क्षायिक सम्यक्त्व होता है वह क्षायिक भाव के वर्णन में बताया गया है।
पारिणामिक भाव से किं तं पारिणामिए?
पारिणामिए दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - साइपारिणामिए य १ अणाइपारिणामिए य २।
से किं तं साइपारिणामिए? साइपारिणामिए अणेगविहे पण्णत्ते। तंजहा -
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