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चर्चाएं आ गयी है, जिनका आचार्य और उपाध्याय पद के लिए जानना अत्यधिक आवश्यक है। ठाणांग सूत्र के तीसरे ठाणे में जो तीन प्रकार के स्थविर बताये हैं। उन में श्रुत स्थविर के लिए स्थानांग एवं समवायाङ्ग सूत्र का ज्ञाता होना बताया है। इस प्रकार विषय संकलन की दृष्टि से प्रस्तुत आगम एक प्रकार का कोष है, जहाँ अनेकानेक विषयों का एक ही स्थान पर संकलन मिल जाता है।
पूर्व में समवायाङ्ग सूत्र का प्रकाशन अनेक संस्थाओं से हो रखा है, जिनकी प्रकाशन शैली (Pattern) भी भिन्न-भिन्न है। हमारे संघ का यह नूतन प्रकाशन है। इसकी शैली (Pattern) संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र के अनुसार है। मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ तथा आवश्यकतानुसार स्थान-स्थान पर विवेचन किया गया है, ताकि विषय को सुगमता से समझा जा सके।
सैलाना से जब कार्यालय ब्यावर स्थानान्तरित हुआ उस समय हमें लगभग ४३ वर्ष पुराने समवायाङ्ग सूत्र, सूत्रकृताङ्क सूत्र, ठाणांग सूत्र, विपाक सूत्र की हस्तलिखित कापियों के बंडल मिले, जो समाज के जाने-माने विद्वान् पण्डित श्री घेवरचन्द जी बांठिया "वीरपुत्र" न्याय व्याकरण तीर्थ, जैन सिद्धान्त शास्त्री के द्वारा बीकानेर में रहते हुए अनुवादित किए हुए थे। जिसमें समवायाङ्ग सूत्र के अनुवाद के समापन की तारीख १७-१-१९५४ संवत् २०१० पोस वदी १३ रविवार दी हुई थी। उन कापियों को देखकर मेरा मन ललचाया कि क्यों नहीं इनको व्यवस्थित कर इनका प्रकाशन संघ की ओर से करवा जाय। इसके लिए मैंने संघ के अध्यक्ष समाज रत्न तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवन्त लाल जी एस. शाह से चर्चा की तो उन्होंने इसके लिए सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी। ___तदुपरान्त इसका मुद्रण प्रारम्भ कर दिया गया। अन्य प्रकाशित प्रतियों एवं सुत्तागमे का सहारा लेकर इसमें आवश्यकतानुसार संशोधन परिवर्द्धन करने के पश्चात् प्रेस काफी तैयार की गयी और उसे पूज्य "वीरपुत्रजी" म. सा. को तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री धनराज जी सा. बडेरा तथा श्री हीराचन्द जी सा. पींचा ने सुनाया। पूज्य श्री ने जहां उचित समझा संशोधन बताया। इसके पश्चात् पुनः श्रीमान् पारसमल जी सा. चण्डालिया, आदरणीय जशवन्तलाल जी शाह तथा मेरे द्वारा अवलोकन किया गया। इस प्रकार प्रस्तुत प्रकाशन में पूर्ण सर्तकता एवं सावधानी बरती गई है, फिर भी आगम सम्पादन का हमारा यह प्रथम प्रयास है। अतएव तत्त्वज्ञ मनीषियों से निवेदन है कि इस प्रकाशन में कोई त्रुटि हो तो हमे सूचित कर अनुगृहित करें।
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