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________________ ४२६ समवायांग सूत्र । हुआ था अर्थात् बलदेव वासुदेवों की युगलजोड़ी हुई थी। उनके गुणों का वर्णन इस प्रकार हैं - त्रेसठ श्लाघ्य पुरुषों में गिनती होने से ये उत्तम पुरुष हैं, त्रेसठ श्लाघ्य पुरुषों में इनकी गिनती मध्य में - बीच में आती है इसलिए मध्यमपुरुष हैं अथवा बल की अपेक्षा ये तीर्थङ्कर और चक्रवर्तियों से हीन - नीचे होते हैं और प्रतिवासुदेवों से बल में अधिक होते हैं, इस प्रकार बल की अपेक्षा दोनों के बीच में होने से ये मध्यमपुरुष हैं। अपने समय में ये बल में सब से अधिक होते हैं, इसलिए ये प्रधानपुरुष हैं, ये मानसिक बल से युक्त होने से ओजस्वी हैं, दीप्त शरीर होने से तेजस्वी हैं, शारीरिक बल से युक्त होने से वर्चस्वी हैं, यशस्वी, शोभित शरीर वाले, कान्त, सौम्य, सुभग - लोकवल्लभ, देखने में प्रिय लगने वाले, सुरूप, सुन्दर चारित्र वाले, सब मनुष्यों के लिए सेवा करने योग्य, सब मनुष्यों के नेत्रों को प्रिय लगने वाले होते हैं, वे ओघबल वाले होते हैं अर्थात् उनका बल लगातार प्रवाह रूप से चलता है, वे अति बलवान् होते हैं, वे महान् बलशाली होते हैं, वे अनिहत होते हैं अर्थात् वे किसी से भी भूमि पर नहीं गिराये जा सकते हैं, निरुपक्रम आयुष्य के धारक होने से अनिहत अर्थात् दूसरे के द्वारा होने वाले घात या मरण से रहित थे, युद्ध में वे किसी से भी पराजित नहीं होते हैं, . वे शत्रु का विनाश करने वाले होते हैं, वे हजारों शत्रुओं के मान को एवं उनकी इच्छाओं को मर्दन करने वाले होते हैं, उनकी आज्ञा को मान लेने वाले शत्रुओं पर वे बड़े दयालु होते हैं, वे अमत्सर यानी ईर्षाभाव से रहित होते हैं, वे अचपल यानी चपलता से रहित होते हैं, अचण्ड यानी बिना कारण वे किसी पर क्रोध नहीं करते, वे परिमित और मधुर भाषण करने वाले और ईषत् हास्य करने वाले होते हैं, गम्भीर, मधुर पूर्ण सत्य वचन बोलने वाले होते हैं, अधीनता स्वीकार करने वालों पर वे वात्सल्य भाव के धारक होते हैं, शरणागतों के रक्षक होते हैं, लक्षण शास्त्र में पुरुषों के जितने सहज स्वाभाविक स्वस्तिक आदि शुभ लक्षण बताये गये हैं उन सभी शुभलक्षणों से युक्त होते हैं तथा जन्म के पश्चात् शरीर में उत्पन्न होने वाले तिल मस्स आदि व्यञ्जनों से युक्त होते हैं, उनके समस्त अङ्गोपाङ्ग सुन्दर और मान, उन्मान तथा प्रमाण युक्त होते है, उनकी आकृति चन्द्रमा के समान सौम्य शीतल और मनोहर होती है, जो देखने में बड़ी ही प्रिय लगती हैं, वे अमर्षण होते हैं अर्थात् शत्रु के अपराध को कभी सहन नहीं करते हैं अथवा वे अमृसण होते हैं अर्थात् कार्य को पूरा करने में वे कभी आलस्य नहीं करते हैं, वे अपनी आज्ञा द्वारा अथवा अपने सैन्य बल द्वारा असाध्य कार्य को भी सिद्ध कर लेते हैं, वे बड़े गंभीर दिखाई देते हैं, बलदेव के ताल वृक्ष की ध्वजा होती है और वासुदेव के गरुड़ की ध्वजा होती है, महान् धनुष को खींचने वाले होते हैं, महान् पराक्रम के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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