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________________ चौबीस तीर्थंकरों के प्रथम शिष्यों के नाम ४१९ भगवान् ऋषभदेव स्वामी का चैत्य वृक्ष तीन गाऊ ऊंचा था। शेष २२ तीर्थङ्करों के चैत्य वृक्ष उनके शरीर से बारह गुणा ऊंचे थे ।। ३८॥ तीर्थङ्करों के चैत्य वृक्ष छत्र, पताका और वेदिका सहित और तोरणों से युक्त होते हैं। देव, असुर और सुपर्णकुमारों द्वारा पूजित होते हैं।। ३९॥ - विवेचन - जिस वृक्ष के नीचे तीर्थङ्करों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसे चैत्य वृक्ष कहते हैं। कुछ के मतानुसार तीर्थङ्कर जिस वृक्ष के नीचे 'जिन दीक्षा' ग्रहण करते हैं उसे चैत्य वृक्ष कहा जाता है। कुबेर नामक देव समवसरण में तीर्थङ्कर के बैठे के स्थान पर उसी वृक्ष की स्थापना करता है और उसे ध्वजा-पताका, वेदिका और तोरण द्वारों से सुसज्जित करता है। समवसरण-स्थित इन वट, शाल आदि सभी वृक्षों को अशोकवृक्ष कहा जाता है, क्योंकि इनकी छाया में पहुँचते ही शोक-सन्तप्त प्राणी का भी शोक दूर हो जाता है और वह अशोक (शोक रहित) हो जाता है। युवाचार्य श्री मधुकरजी म. सा. द्वारा सम्पादित उववाई सूत्र में पूज्य श्री जयमल जी म. सा. ने 'चेइय' शब्द के ११२ अर्थ किये हैं। इसलिये 'चेइय' शब्द का अर्थ 'मन्दिर मूर्ति' ऐसा एकान्त अर्थ करना उचित नहीं है। यहाँ पर 'चेइय' शब्द का अर्थ टीकाकार ने किया है कि - जिस वृक्ष के नीचे तीर्थङ्करों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इसी प्रकार 'तिक्खुत्तो' के पाठ में 'चेइय' शब्द ज्ञानवन्त अर्थ में आया है। भिन्न-भिन्न स्थानों पर 'चेइय' शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं। इसलिये चैत्य शब्द का अर्थ यथास्थान यथायोग्य करना चाहिए। ____ चौबीस तीर्थङ्करों के प्रथम शिष्यों के नाम एएसिं चउव्वीसाए तित्थयराणं चउब्बीसं पढम सीसा होत्था, तंजहा - पढमेत्थ उसभसेणे, बीइए पुण होइ सीहसेणे य। चारु य वज्जणाभे, चमरे तह सुव्वय विदब्भे य॥४०॥ दिण्णे य वराहे पुण, आणंदे गोथुभे सुहम्मे य। अंदर जसे अरिटे, चक्काह सयंभू कुंभे य।। ४१॥ इंदे कुंभे य सुभे, वरदत्ते दिण्ण इंदभूई य। उदिओदिय कुलवंसा, विसुद्धवंसा गुणेहिं उववेया॥४२॥ तित्थप्पवत्तयाणं, पढमा सिस्सा जिणवराणं ।। कठिन शब्दार्थ - पढम सिस्सा - प्रथम शिष्य, तित्यपवत्तयाणं- तीर्थ को प्रवर्ताने वाले। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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