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________________ समवायांग सूत्र ननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननननन ३८० (कुछ अधिक) उत्कृष्ट २ सागरोपम झाझेरी (कुछ अधिक), सनत्कुमार में जघन्य २ सागरोपम, उत्कृष्ट ७ सागरोपम, माहेन्द्र में जघन्य २ सागरोपम झाझेरी, उत्कृष्ट ७ सागरोपम झाझेरी, ब्रह्म देवलोक में जघन्य ७ सागरोपम, उत्कृष्ट १० सागरोपम, लान्तक में जघन्य १० सागरोपम, उत्कृष्ट १४ सागरोपम, महाशुक्र में जघन्य १४ सागरोपम, उत्कृष्ट १७ सागरोपम, सहस्रार में जघन्य १७ सागरोपम, उत्कृष्ट १८ सागरोपम, आणत में जघन्य १८ सागरोपम, उत्कृष्ट १९ सागरोपम, प्राणत में जघन्य १९ सागरोपम उत्कृष्ट २० सागरोपम, आरण में जघन्य २० सागरोपम, उत्कृष्ट २१ सागरोपम अच्युत में जघन्य २१ सागरोपम, उत्कृष्ट २२ सागरोपम, नवग्रैवेयक में जघन्य २२ सागरोपम, उत्कृष्ट ३१ सागरोपम की स्थिति है। विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित इन में जघन्य ३१ सागरोपम, उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की स्थिति है । सर्वार्थ सिद्ध विमान में अजघन्य अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है ॥ विवेचन - प्रश्न स्थिति किसे कहते हैं ? उत्तर उस स्थान में रहने की काल मर्यादा को स्थिति कहते हैं। स्थिति के दो भेद हैं - काय स्थिति और भव स्थिति । एक काया से मर कर फिर उसी काया में उत्पन्न होना, काय स्थिति कहलाता है। जैसे कि पृथ्वीकाय का जीव मर कर फिर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होवे इस प्रकार लगातार पृथ्वीकाय से मर कर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते रहना । पृथ्वीकाय की कायस्थिति है। पृथ्वीकाय की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट असंख्यात काल की है। पन्नवणा सूत्र के अठारहवें पद में २४ ही दण्डक के जीवों की कायस्थिति वर्णन है । भवस्थिति-उस भव की आयुष्य के साथ जो भोगी जाती है, उसे भव स्थिति कहते हैं। जैसे कि - पृथ्वीकाय की भवस्थिति, जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष की है। इसका वर्णन भी पन्नवणा सूत्र के अठारहवें पद में कहा गया है। प्रश्न- अपर्याप्तक और पर्याप्तक किसे कहते हैं ? - - Jain Education International उत्तर - जिस जीव को जितनी पर्याप्तियाँ बांधनी हो उतनी जब तक पूरी न बांधे तब तक वह अपर्याप्तक कहलाता है और जब उतनी पर्याप्तियों को पूरी बांध लेता है, तब उसे पर्याप्तक कहते हैं । अपर्याप्तक के दो भेद हैं लब्धि अपर्याप्तक और करण अपर्याप्तक । लब्धि अपर्याप्तक जीव तो अपर्याप्तक अवस्था में ही काल कर जाता है। करण अपर्याप्तक जीव अपर्याप्तक अवस्था में काल नहीं करता है । जैसा कि कहा है "नारय देवा तिरियमणुय, गब्भया जे असंखवासाऊ । एए उ अपज्जत्ता, उववाए चेव बोद्धव्वा ।" For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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