SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैरयिकों का वर्णन ३५७ २. अतीर्थ सिद्ध ३. तीर्थङ्कर सिद्ध ४. अतीर्थङ्कर सिद्ध ५. स्वयंबुद्ध सिद्ध ६. प्रत्येक बुद्ध सिद्ध, ७. बुद्ध बोधित सिद्ध, ८. स्त्रीलिङ्ग सिद्ध ९. पुरुष लिङ्ग सिद्ध १०. नपुंसकलिङ्ग सिद्ध, ११. गृहस्थलिङ्ग सिद्ध १२. स्वलिङ्ग सिद्ध १३. अन्यलिङ्ग सिद्ध १४. एक सिद्ध १५. अनेक सिद्ध। परम्परसिद्ध के अनेक भेद हैं। संसार समापन्न जीव के दो भेद - त्रस और स्थावर। स्थावर के पांच भेद - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय। त्रस के चार भेद - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय। पञ्चेन्द्रिय के चार भेद - नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देवता। विवेचन - जो जीव संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं, उन्हें संसार-समापन्नक कहते हैं और जो जीव संसार में परिभ्रमण नहीं कर रहे हैं किन्तु आठों कर्मों का क्षय करके संसार समुद्र को पार कर मुक्ति में विराजमान हो गये हैं। उन्हें असंसार समापन्नक (सिद्ध भगवान्) कहते हैं। सिद्ध भगवन्तों के तीर्थसिद्ध आदि भेद भावार्थ में कह दिये गये हैं। संसार समापनक जीव के दो भेद हैं - त्रस और स्थावर । स्थावर के पांच भेद हैं यथा - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय। त्रस के चार भेद हैं यथा - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय। इन सब का विस्तृत वर्णन पन्नवणा सूत्र और जीवांभिगम सूत्र से जान लेना चाहिए । ... नैरयिकों का वर्णन णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - पजत्ता य अपजत्ता य। एवं दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियत्ति। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए केवइयं खेत्तं ओगाहित्ता केवइया णिरयावासा पण्णत्ता? गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोयणसयसहस्स बाहल्लाए उवरिं एगं जोयण सहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा च एग जोयण सहस्सं वजित्ता मज्झे अट्ठसत्तरि जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं तीसं णिरयावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खाया, ते णं णिरयावासा अंतो वट्टा बाहि चउरंसा जाव असुभा णिरया, असुभाओ णिरएसु वेयणाओ । एवं सत्तवि भाणियवाओ जै जासु जुजइ। असीइ बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अट्ठारस सोलसगं, अत्तरमेव बाहल्लं ॥ १ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy