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________________ समवायांग सूत्र उत्तर ईख (गन्ना) आदि के ऊपर के भाग और मूल भाग को तोड़कर ऊपरी छिलकों को छीलकर मध्य की गांठों को हटा कर जो छोटे छोटे खण्ड किये जाते हैं, उन्हें "गण्डिका" (गण्डेरी) कहते हैं। उस गण्डिका के समान जिस शास्त्र में अगले पिछले विषम अधिकार से रहित मध्य के एक सरीखे अधिकार वाले विषय हों, उसे गण्डिका अनुयोग कहते हैं । गण्डिकानुयोग में सर्व प्रथम कुलकर गण्डिका है । उत्सर्पिणी काल के दुषमा नामक दूसरे आरे के प्रारम्भ में और अवसर्पिणी काल के सुषम दुष्षमा नामक तीसरे आरे के अन्त में जगत् की मर्यादा का निर्माण और रक्षण करने वाले 'कुलकर' कहलाते हैं। ऐसे सुमति कुलकर आदि के चरित्र जिसमें कहे जाते हैं उसे कुलकर गण्डिका कहते हैं इसी प्रकार तीर्थङ्कर बलदेव आदि सब गण्डिकाओं का अर्थ समझ लेना चाहिए। से किं तं चूलियाओ ? जपणं आइल्लाणं चउण्हं पुव्वाणं चूलियाओ, सेसाई पुव्वाइं अचूलियाई, से तं चूलियाओ । कठिन शब्दार्थ - चूलियाओ - चूलिका । भावार्थ - शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! चूलिका किसे कहते हैं ? गुरु महाराज फरमाते हैं कि अध्ययन का कथन करने के बाद उसका शिखर रूप या उपसंहार रूप जो कथन किया जाता है, उसे चूलिका या चूड़ा कहते हैं। पहले के चार पूर्वो की अर्थात् उत्पाद पूर्व, अग्रायणीय पूर्व, वीर्य प्रवाद पूर्व और अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व, इन चार पूर्वों के 'चूलिकाएं हैं और बाकी दस पूर्वों के चूलिकाएं नहीं हैं। यह चूलिका का कथन हुआ। विवेचन - जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में सबसे ऊपर चोटी (चूला) होती है उसी प्रकार सब अध्ययनों के बाद शिखर रूप जो कही जाय उसे चूलिका कहते हैं । उसमें पूर्व अध्ययनों में कहे हुए विषयों का विशेष स्पष्टीकरण होता है तथा जो उन अध्ययनों में कहना शेष रह गया हो उस विषय को कहा जाता है। चौदह पूर्वों में से पहले के चार पूर्वो की चौतीस चूलिकाएँ हैं। शेष दस पूर्वों की चूलिकाएँ नहीं हैं। दिट्टिवायरस णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तिओ संखेज्जाओ णिज्जुत्तीओ, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ संग्गहणीओ से णं अंगट्टयाए बारसमे अंगे, एगे सुयबखंधे, चउद्दस पुव्वाई, संखेज्जा वत्थू, संखेज्जा चूलवत्थू, संखेज्जा पाहुडा, संखेज्जा पाहुडपाहुडा, संखेज्जाओ पाहुडियाओ, संखेज्जाओ पाहुडपाहुडियाओ, संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ता । संखेज्जा ३५० Jain Education International - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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