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बारह अंग सूत्र
प्राणियों को इस लोक में राज्य की तरफ से मृत्यु दण्ड तक दिया जाता है और परलोक में नरक - तिर्यंच गति में जन्म लेकर अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं । अब्रह्म (मैथुन) का सेवन कायर पुरुष ही करते हैं, शूरवीर नहीं । इसका सेवन कितने ही समय तक किया जाय किन्तु तृप्ति नहीं होती । जो राजा, महाराजा, वासुदेव, चक्रवर्ती, इन्द्र, नरेन्द्र आदि इसमें फँसे हुये हैं वे अतृप्त अवस्था में ही काल धर्म को प्राप्त हो जाते हैं और दुर्गति में जाकर वहाँ अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं । परिग्रह जो पाप का बाप है इसमें अधिक फंसने से सुख प्राप्त नहीं होता । किन्तु सन्तोष से ही सुख की प्राप्ति होती है । इन आस्रवों का पापकारी फल बताकर इन से निवृत्त होने की शास्त्रकार ने प्रेरणा दी है ।
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दूसरे श्रुतस्कन्ध का नाम संवर द्वार है। इसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का बहुत सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है तथा यह बतलाया गया है कि संवर द्वारों की सम्यक् प्रकार से आराधना करने से जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
से किं ते विवागस्यं ? विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फल विवागा आघविज्जंति, से समासओ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- दुहविवागे चेव सुहविवागे चेव, तत्थ णं दस दुहविवागाणि, दस सुहविवागाणि । से किं तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं णगराई, उज्जाणाई, चेड्याइं, वणखंडा, रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणाई, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, णगरगमणाई, संसारपबंधे दुहपरंपराओ य आघविज्जंति, से तं दुहविवागाणि ।
से. किं तं सुहविवागाणि ? सुहविवागेसु णं सुहविवागाणं णगराई उज्जाणाई चेइयाई, वणखंडा, रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणाई, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइय, परलौइय, इड्डि विसेसा, भोगपरिच्चाया, पव्वज्जाओ, सुयपरिग्गहा, तवोवहाणाइं, परियागा, पडिमाओ, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाइं, पाओवगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुलपच्चायाई, पुण बोहिलाहा, अंतकिरियाओ य आघविज्जंति, सेतं सुहविवागाणि ।
दुहविवागेसु णं पाणाइवाय अलियवयण चोरिक्ककरण परदारमेहुणससंगयाए महतिव्व कसाय इंदिय प्पमाय पावप्पओय असुहज्झवसाण, संचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभागफलविवागा, णिरय गइ - तिरिक्खजोणि-बहुविह-वसण-सयपरंपराबद्धाणं मणुयत्ते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावगा होंति फलविवागा,
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