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________________ समवायांग सूत्र किया गया है। इस सूत्रकृताङ्ग सूत्र के सूत्र और अर्थ सम्पूर्ण सूत्रार्थ दोषों से रहित हैं और सूत्रार्थ गुणों से युक्त हैं। अज्ञान रूप अन्धकार से दुःसाध्य सत्य मार्ग को प्रकाशित करने में दीपक के समान हैं। सिद्धिगति रूप उत्तम महल में चढ़ने के लिए सोपान -सीढी रूप हैं। ये सूत्रार्थ प्रतिवादी के द्वारा खण्डित नहीं किये जा सकते हैं अतएव ये निष्प्रकम्प हैं अर्थात् ये सर्वथा दोष रहित हैं । सूत्रकृताङ्ग सूत्र की परित्ता वाचना हैं, अनन्ता नहीं । संख्याता अनुयोगद्वार हैं। संख्याता प्रतिपत्तियाँ हैं । संख्याता वेढक - छन्द विशेष हैं। संख्याता श्लोक हैं। संख्याता नियुक्तियाँ हैं। अङ्गों की अपेक्षा यह सूत्रकृताङ्ग सूत्र दूसरा अङ्ग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं। २३ अध्ययन हैं। उनमें ३३ उद्देशन काल हैं ३३ समुद्देशन काल हैं, प्रत्येक पद की गिनती की अपेक्षा ३६००० पद हैं। संख्याता अक्षर हैं, अनन्ता गम यानी अर्थ परिच्छेद हैं, अनन्त पर्याय यानी अक्षर और अर्थों के पर्याय हैं, द्वीन्द्रियादि त्रस जीव परित्त हैं, अनन्त नहीं, स्थावर जीव अनन्त हैं, श्री तीर्थङ्कर भगवान् के द्वारा कहे हुए ये पदार्थ द्रव्य रूप से शाश्वत हैं, पर्याय रूप से कृत हैं, सूत्र रूप में गूंथे हुए निबद्ध हैं, निर्युक्ति हेतु उदाहरण द्वारा भली प्रकार कहे गये होने से निकाचित हैं। ये सूत्रकृताङ्ग सूत्र के भाव तीर्थङ्कर भगवान् के द्वारा सामान्य और विशेष रूप से कहे गये हैं, नामादि के द्वारा कथन किये गये हैं, स्वरूप बतलाया गया है, उपमा आदि के द्वारा दिखलाये गये हैं, हेतु दृष्टान्त आदि के द्वारा विशेष रूप से दिखलाये गये हैं, उपनय और निगमन के द्वारा अथवा सम्पूर्ण नयों के अभिप्राय से बतलाये गये हैं । इस प्रकार सूत्रकृताङ्ग सूत्र को पढने से आत्मा ज्ञाता - स्वसिद्धान्त का ज्ञाता होता है, विज्ञाता - स्व सिद्धान्त और परसिद्धान्त का विशेष ज्ञाता होता है । इस प्रकार चरणसत्तरि, करणसत्तरि आदि की प्ररूपणा से सूत्रकृताङ्ग सूत्र के भाव कहे जाते हैं। विशेष रूप से कहे जाते हैं। यह सूत्रकृताङ्ग सूत्र का भाव है ॥ २ ॥ विवेचन - अङ्ग सूत्रों में दूसरे अङ्ग का नाम सूत्रकृताङ्ग है। सूत्र शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है २९८ - - "सूत्रं तु सूचना कारि, ग्रन्थे तन्तु व्यवस्थयोः ।" अर्थ-सूचना अर्थात् दिशा निर्देश करने वाले को 'सूत्र' कहते हैं। सूत्र शब्द के ये अर्थ भी होते हैं - ग्रन्थ - शास्त्र, पुस्तक । तन्तु- डोरा - जो अनेक वस्तुओं को जोड़कर एक करता है । व्यवस्था वस्तु को यथास्थान स्थापित करना । सूत्र का लक्षण इस प्रकार भी किया है Jain Education International - नननननननननननननननननननननक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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