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________________ २९२ में अपनी आत्मा को जोड़ना, सेज्जा- शय्या, उवहि - उपधि-वस्त्र पात्रादि, तवोवहाण तप उपधान, सुप्पसत्थं - सुप्रशस्त उत्तम गुणों का, समासओ संक्षेप से, अणुओगदारा अनुयोगद्वार, पडिवत्तीओ- प्रतिपतियाँ, वेढा - वेढा - वेष्टक छन्द विशेष, सिलोगा - अनुष्टुप आदि श्लोक, णिज्जुत्तीओ नियुक्तियाँ, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा - तीर्थङ्कर भगवान् द्वारा कहे हुए ये पदार्थ द्रव्य रूप से शाश्वत हैं, पर्याय रूप से कृत हैं, सूत्र रूप से गूंथे हुए हैं, निर्युक्ति हेतु उदाहरण द्वारा भली प्रकार कहे गये हैं, आघविज्जंतिसामान्य और विशेष रूप से कहे जाते हैं, पण्णविज्जंति नामादि के द्वारा कथन किये जाते हैं, परूविज्जंति - स्वरूप बतलाया जाता है, दंसिज्जंति दिखलाये जाते हैं, उवदंसिज्जंतिउपनय निगमन के द्वारा अथवा संपूर्ण नयों के अभिप्राय से बतलाये जाते हैं । भावार्थ - शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! आचार किसको कहते हैं ? भगवान् फरमाते हैं कि श्रमण निर्ग्रन्थों के आचरण को आचार कहते हैं । आचाराङ्ग सूत्र में श्रमण निर्ग्रन्थों का ज्ञान दर्शन आदि आचार, गोचर - भिक्षा ग्रहण करने की विधि, विनय - ज्ञानादि का विनय, वैनयिक- विनय का फल - कर्मक्षयादि, स्थान- कायोत्सर्ग आदि करने का स्थान, गमनविहार, चंक्रमण एक उपाश्रय से दूसरे उपाश्रय में जाना अर्थात् शरीर के श्रम को दूर करने के लिए इधर उधर टहलना, प्रमाण आहारादि का प्रमाण, योगयोजन - स्वाध्याय और प्रतिलेखना आदि में आत्मा को जोड़ना और उसमें उपयोग रखना, भाषा समिति आदि, मनोगुप्ति आदि, शय्या, उपधि - वस्त्र पात्रादि, आहार पानी, उद्गम के १६ दोष, उत्पादना के १६ दोष और एषणा के १० दोष, इन ४२ दोषों को टाल कर शुद्ध आहारादि को ग्रहण करना और अशुद्ध को छोड़ना, व्रत- मूल गुण, नियम-उत्तरगुण, तप उपधान - बारह प्रकार का तप, इत्यादि सुप्रशस्त उत्तम गुणों का कथन किया गया है। वह आचार संक्षेप से पांच प्रकार का कहा गया है यथा - ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार, वीर्याचार । आचारांग सूत्र की सूत्रार्थप्रदान रूप वाचना संख्याता है, उपक्रम आदि अनुयोग द्वार संख्याता हैं, प्रतिपत्तियाँ - पदार्थों को जानने विधियाँ एवं मतान्तर संख्याता हैं, वेढा - वेष्टक छन्द विशेष संख्याता हैं, अनुष्टुप् आदि श्लोक संख्याता हैं, नियुक्तियाँ अर्थ को युक्ति संगत बिठाने वाली एवं निक्षेप नियुक्तियाँ संख्याता हैं। अङ्गों की अपेक्षा यह पहला अङ्ग सूत्र है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। पच्चीस अध्ययन हैं। उनके नाम इस प्रकार है - १. शस्त्र परिज्ञा २. लोक विजय ३. शीतोष्णीय ४. सम्यक्त्व ५. आवंती ६. धूत ७. विमोक्ष ८. महापरिज्ञा ९. उपधानश्रुत ये ९ अध्ययन प्रथम श्रुतस्कन्ध में हैं । १०. पिण्डैषणा ११. शय्या १२. ईर्या १३. भाषा वाचना - Jain Education International - - समवायांग सूत्र भिननननन - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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